अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
आ स॒त्यो या॑तु म॒घवाँ॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः। तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । स॒त्य: । या॒तु । म॒घऽवा॑न् । ऋ॒जी॒षी । द्रव॑न्तु । अ॒स्य॒ । हर॑य: । उप॑ । न॒: ॥ तस्मै॑ । इत् । अन्ध॑: । सु॒सु॒म॒ । सु॒ऽदक्ष॑म् । इ॒ह । अ॒भि॒ऽपि॒त्वम् । क॒र॒ते॒ । गृ॒णा॒न: ॥७७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सत्यो यातु मघवाँ ऋजीषी द्रवन्त्वस्य हरय उप नः। तस्मा इदन्धः सुषुमा सुदक्षमिहाभिपित्वं करते गृणानः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । सत्य: । यातु । मघऽवान् । ऋजीषी । द्रवन्तु । अस्य । हरय: । उप । न: ॥ तस्मै । इत् । अन्ध: । सुसुम । सुऽदक्षम् । इह । अभिऽपित्वम् । करते । गृणान: ॥७७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर आचार्य राजा।
भावार्थ -
(सत्यः) सत्य स्वरूप, (ऋजीषी) ऋजु, धर्म मार्ग में सबको प्रेरणा करने वाला, (मघवान्) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर और आचार्य (आ यातु) हमें प्राप्त हो। (अस्य) इसके (हरयः) गुण वर्णन करने वाले विद्वान् या शिष्यगण (नः) हमारे (उप आ द्रवन्तु) समीप आवें। (तस्मै इत्) उसके लिये ही हम (सुदक्षम्) उत्तम बलकारी (अन्धः) अन्न आदि समस्त भोग्य पदार्थों को (सुषुम) उत्पन्न करते या उसके निमित्त प्रदान करते हैं। वह ही (गृणानः) उत्तम उपदेश करता हुआ (अभिपित्वम् करते) हमें अभिमत फल प्राप्त कराता है।
राजा के पक्ष में—सत्य और न्याय प्रिय होने से वह राजा ‘सत्य’ है, ऐश्वर्यवान् होने से ‘मधवा’ हैं। धर्म और सदाचार मार्ग पर प्रजाओं के संचालन से ‘ऋजीषी’ है उसके (हरयः) घुड़सवार या संदेशहर हमें प्राप्त हो। उसके लिये हम प्रजाजन पृथ्वीपर अन्न आदि ऐश्वर्य उत्पन्न करें। वह (इह) इस राष्ट्र में (गृणानः) स्तुति किया जाकर अथवा उत्तम शिक्षा देता हुआ हमारा (अभिपित्वम् करते) साक्षात् पालन पोषण करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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