अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 8
अ॒पो यदद्रिं॑ पुरुहूत॒ दर्द॑रा॒विर्भु॑वत्स॒रमा॑ पू॒र्व्यं ते॑। स नो॑ ने॒ता वाज॒मा द॑र्षि॒ भूरिं॑ गो॒त्रा रु॒जन्नङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प: । यत् । अद्रि॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । दर्द॑: । आ॒वि: । भु॒व॒त् । स॒रमा॑ । पू॒र्व्यम् । ते॒ ॥ स: । न॒: । ने॒ता । वाज॑म् । आ । द॒र्षि॒ भूरिम् । गो॒त्रा । रु॒जन् । अङ्गि॑र:ऽभि: । गृ॒णा॒न: ॥७७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो यदद्रिं पुरुहूत दर्दराविर्भुवत्सरमा पूर्व्यं ते। स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोत्रा रुजन्नङ्गिरोभिर्गृणानः ॥
स्वर रहित पद पाठअप: । यत् । अद्रिम् । पुरुऽहूत । दर्द: । आवि: । भुवत् । सरमा । पूर्व्यम् । ते ॥ स: । न: । नेता । वाजम् । आ । दर्षि भूरिम् । गोत्रा । रुजन् । अङ्गिर:ऽभि: । गृणान: ॥७७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 8
विषय - परमेश्वर आचार्य राजा।
भावार्थ -
बलों के प्रकट करने के लिये वायु रूप इन्द्र जिस प्रकार (अद्रिम्) मेघों को तोड़ता है, उसी प्रकार हे (पुरुहूत) इन्द्रियों में व्याप्त आत्मन् ! समस्त प्रजाओं के पुकारे गये विश्वात्मन् ! (यत्) जब भी तू (अपः) ज्ञानों और कर्मों के प्रकट करने के लिये (अद्रिम्) अखण्ड आत्मा में आवरण को (दर्दः) विदीर्ण करता है अर्थात् उस मेघ रूप आत्मा को प्राप्त करता है तब (सरमा) व्यापक ज्ञानशक्ति (ते) तेरे (पूर्णम्) पूर्ण एवं पूर्व के सनातन रूप को (आविः भुवत्) प्रकट करता है (सः) वह तू परमेश्वर (नः) हमें (भूरिम् वाजं) बहुतसा ऐश्वर्य बल एवं ज्ञान को (नेता) प्राप्त कराने वाला होकर (अंगिरोभिः) अंग अर्थात् देह में रसरूप से विद्यमान प्राणों द्वारा अथवा (अंगिरोभिः) ज्ञानी पुरुषों से (गृणन्तः) स्तुति को प्राप्त होता हुआ (गोत्रा) ज्ञान की रश्मियों को रोकने वाले बाधक आवरणों को नाश करता हुआ (आ दर्षि) स्वयं प्रकट होता हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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