अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 8
अ॒पो यदद्रिं॑ पुरुहूत॒ दर्द॑रा॒विर्भु॑वत्स॒रमा॑ पू॒र्व्यं ते॑। स नो॑ ने॒ता वाज॒मा द॑र्षि॒ भूरिं॑ गो॒त्रा रु॒जन्नङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प: । यत् । अद्रि॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । दर्द॑: । आ॒वि: । भु॒व॒त् । स॒रमा॑ । पू॒र्व्यम् । ते॒ ॥ स: । न॒: । ने॒ता । वाज॑म् । आ । द॒र्षि॒ भूरिम् । गो॒त्रा । रु॒जन् । अङ्गि॑र:ऽभि: । गृ॒णा॒न: ॥७७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो यदद्रिं पुरुहूत दर्दराविर्भुवत्सरमा पूर्व्यं ते। स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोत्रा रुजन्नङ्गिरोभिर्गृणानः ॥
स्वर रहित पद पाठअप: । यत् । अद्रिम् । पुरुऽहूत । दर्द: । आवि: । भुवत् । सरमा । पूर्व्यम् । ते ॥ स: । न: । नेता । वाजम् । आ । दर्षि भूरिम् । गोत्रा । रुजन् । अङ्गिर:ऽभि: । गृणान: ॥७७.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(पुरुहूत) हे बहुतों से बुलाये गये [राजन् !] (यत्) जब तू (अपः) जलों को (अद्रिम्) पहाड़ से (दर्दः) तोड़े [तब] (ते) तेरी (सरमा) चलने योग्य सरल नीति (पूर्व्यम्) सनातन व्यवहार को (आविः भुवत्) प्रकट करे। (सः) सो तू (नः) हमारा (नेता) नेता होकर, (गोत्रा) पहाड़ों को [मार्ग के लिये] (रुजन्) तोड़ता हुआ और (अङ्गिरोभिः) विद्वानों के साथ (गृणानः) उपदेश करता हुआ (भूरिम्) बहुत (वाजम्) पराक्रम को (आ दर्षि) आदर करे ॥८॥
भावार्थ
जब राजा उत्तम नीति से पहाड़ों से नदी-नाले निकालकर प्रजा को खेती शिल्प आदि व्यवहारों से प्रसन्न रखता है, वह विद्वानों के साथ आने-जाने के लिये मार्गों को खोलकर आदर के साथ सामर्थ्य बढ़ाता है ॥८॥
टिप्पणी
८−(अपः) जलानि (यत्) यदा (अद्रिम्) अद्रिसकाशात् पर्वतात् (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (दर्दः) दॄ विदारणे-लुङ् लिङर्थे। विदारयेः (आविः) प्राकट्ये (भुवत्) अन्तर्गतण्यर्थः। भावयेत्। कुर्यात् (सरमा) अ० ९।४।१३। सृ गतौ-अमप्रत्ययः, टाप्। सरमा पदनाम-निघ० ।। सरणीया। प्राप्तव्या सरला नीतिः (पूर्व्यम्) पुराणं व्यवहारम् (ते) तव (सः) स त्वम् (नः) अस्माकम् (नेता) नायकः (वाजम्) बलम् (आ दर्षि) अ० २०।२।३। लोडर्थे लट्। आद्रियस्व (भूरिम्) प्रभूतम् (गोत्रा) गोत्रान्। शैलान् (रुजन्) भञ्जन् (अङ्गिरोभिः) विद्वद्भिः (गृणानः) उपदिशन् ॥
विषय
अविद्या-पर्वतों का भेदक प्रभु
पदार्थ
१. हे (पुरुहूत) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी, ऐसे प्रभो! आप (यत्) = जब (अप:) = हमारे वीर्यकों का लक्ष्य करके (अद्रिम्) = अविद्यापर्वत को (दर्दः) = विदीर्ण करते हैं तब (पूर्व्यम्) = सर्वप्रथम (ते) = आपकी (सरमा) = सब विषयों में चलनेवाली बुद्धि (आविर्भुवत्) = प्रकट होती है। (अविद्या) = विनाश से वीर्य का रक्षण होता है, इससे हममें सूक्ष्मबुद्धि का प्रादुर्भाव होता है। २. (स:) = वे (न:) = हमारे (नेता) = प्रणयन करनेवाले आप (भूरिम्) = पालन व पोषण करनेवाले (वाजम्) = बल व अन्न को (आदर्षि) = प्राप्त कराते हैं। (अंगिरोभिः) = अपने अंगों को रसमय बनानेवाले पुरुषों से (गणान:) = स्तुति किये जाते हुए आप (गोत्रा) = अविद्यापर्वतों का (रुजन्) = विदारण करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों। प्रभु ही हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करेंगे और हमें पालक व पोषक बलों को प्राप्त कराएंगे। ज्ञान व बल को प्राप्त करनेवाला यह उपासक अपने साथ शान्ति को जोड़नेवाला 'शंयु' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(पुरुहूतः) हे बहुतों द्वारा या बहुत नामों द्वारा पुकारे गये परमेश्वर! (यद्) जब आप (पूर्व्यम्) पूर्वकाल अर्थात् अनादि परम्परा से प्राप्त (अपः) कर्मों के (अद्रिम्) न विदीर्ण होनेवाले पर्वत को (दर्दः) विदीर्ण कर देते हैं, तब (ते) आप की (सरमा) दैवी-वाक् अर्थात् दिव्यप्रेरणा (आविर्भुवत्) प्रकट होती है। तदनन्तर (सः) वे आप (नः) हमारे (नेता) मार्गदर्शी नेता बनते हैं, और (भूरि) प्रभूत (वाजम्) शक्ति (आ दर्षि) समादर पूर्वक देते हैं। और (अङ्गिरोभिः) प्राणाभ्यासियों के द्वारा (गृणानः) उपदेश देते हुए आप (गोत्रा) हमारे पापों के गढ़ों को (रुजन्) तोड़-फोड़ देते हैं। [सरमा=वाक् (मै০ सं০ ४.६.४)। गोत्रः= mountain (आप्टे)।]
विषय
परमेश्वर आचार्य राजा।
भावार्थ
बलों के प्रकट करने के लिये वायु रूप इन्द्र जिस प्रकार (अद्रिम्) मेघों को तोड़ता है, उसी प्रकार हे (पुरुहूत) इन्द्रियों में व्याप्त आत्मन् ! समस्त प्रजाओं के पुकारे गये विश्वात्मन् ! (यत्) जब भी तू (अपः) ज्ञानों और कर्मों के प्रकट करने के लिये (अद्रिम्) अखण्ड आत्मा में आवरण को (दर्दः) विदीर्ण करता है अर्थात् उस मेघ रूप आत्मा को प्राप्त करता है तब (सरमा) व्यापक ज्ञानशक्ति (ते) तेरे (पूर्णम्) पूर्ण एवं पूर्व के सनातन रूप को (आविः भुवत्) प्रकट करता है (सः) वह तू परमेश्वर (नः) हमें (भूरिम् वाजं) बहुतसा ऐश्वर्य बल एवं ज्ञान को (नेता) प्राप्त कराने वाला होकर (अंगिरोभिः) अंग अर्थात् देह में रसरूप से विद्यमान प्राणों द्वारा अथवा (अंगिरोभिः) ज्ञानी पुरुषों से (गृणन्तः) स्तुति को प्राप्त होता हुआ (गोत्रा) ज्ञान की रश्मियों को रोकने वाले बाधक आवरणों को नाश करता हुआ (आ दर्षि) स्वयं प्रकट होता हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, universal celebrity, when you break the cloud of hoarded potentials and your simple and straight policy of governance and administration comes into full view on earth, then you, such leader and commander of ours, sung and celebrated by scholars and scientists, manifest your power and policy further and break open the many centre-holds of human intelligence and social energy.
Translation
O Almighty God, you are invoked by many. When you cleave the waters from cloud the power of sun (Sarma) makes your eternal power manifested. You as our leader breaking the clouds and being praised by men of austerity grace us with vigour.
Translation
O Almighty God, you are invoked by many. When you cleave the waters from cloud the power of sun (Sarma) makes your eternal power manifested. You as our leader breaking the clouds and being praised by men of austerity grace us with vigor.
Translation
O much-invoked God or soul, just as the atmospheric electricity shatters the cloud to release its waters, so do you tear off the covering Of ignorance of the soul to release the drops of bliss when Thy Primordial constant current of nectar reveals itself. The self-same Begetter of ours to attain immense power, wealth and knowledge, Thou, effacing the hurdles from the rays of light and learnings, and being praised by the learned devotees, revealest Thyself
Footnote
Sarma and Angiras are not special personages, as noted by Sayana and Griffith.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(अपः) जलानि (यत्) यदा (अद्रिम्) अद्रिसकाशात् पर्वतात् (पुरुहूत) हे बहुभिराहूत (दर्दः) दॄ विदारणे-लुङ् लिङर्थे। विदारयेः (आविः) प्राकट्ये (भुवत्) अन्तर्गतण्यर्थः। भावयेत्। कुर्यात् (सरमा) अ० ९।४।१३। सृ गतौ-अमप्रत्ययः, टाप्। सरमा पदनाम-निघ० ।। सरणीया। प्राप्तव्या सरला नीतिः (पूर्व्यम्) पुराणं व्यवहारम् (ते) तव (सः) स त्वम् (नः) अस्माकम् (नेता) नायकः (वाजम्) बलम् (आ दर्षि) अ० २०।२।३। लोडर्थे लट्। आद्रियस्व (भूरिम्) प्रभूतम् (गोत्रा) गोत्रान्। शैलान् (रुजन्) भञ्जन् (अङ्गिरोभिः) विद्वद्भिः (गृणानः) उपदिशन् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(পুরুহূত) হে অনেকের দ্বারা আহূত [রাজন্ !] (যৎ) যখন আপনি (অপঃ) জলকে (অদ্রিম্) পর্বত থেকে (দর্দঃ) ছিন্ন করেন, [তখন] (তে) আপনার (সরমা) প্রাপ্তিযোগ্য সরল নীতি (পূর্ব্যম্) সনাতন ব্যবহারকে (আবিঃ ভুবৎ) প্রকট করে। (সঃ) তাই আপনি (নঃ) আমাদের (নেতা) নেতা হয়ে, (গোত্রা) পর্বতকে [মার্গের জন্য] (রুজন্) ভঞ্জন করে এবং (অঙ্গিরোভিঃ) বিদ্বানদের সহিত (গৃণানঃ) উপদেশ করে (ভূরিম্) অসীম (বাজম্) পরাক্রমকে (আ দর্ষি) আদর করেন ॥৮॥
भावार्थ
যখন রাজা উত্তম নীতি প্রয়োগের মাধ্যমে পর্বত থেকে নদী-নালা প্রস্তুত করে প্রজাদের চাষাবাদ, শিল্প ব্যবহার দ্বারা প্রসন্ন রাখেন, রাজা বিদ্বানগণের সহিত যাতায়াতের জন্য মার্গ প্রস্তুত করে সাদরে সামর্থ্য বৃদ্ধি করেন ॥৮॥
भाषार्थ
(পুরুহূতঃ) হে অনেকের দ্বারা বা বহু নাম দ্বারা আহুত পরমেশ্বর! (যদ্) যখন আপনি (পূর্ব্যম্) পূর্বকাল অর্থাৎ অনাদি পরম্পরা থেকে প্রাপ্ত (অপঃ) কর্মের (অদ্রিম্) না বিদীর্ণ হওয়া পর্বতকে (দর্দঃ) বিদীর্ণ করেন, তখন (তে) আপনার (সরমা) দৈবী-বাক্ অর্থাৎ দিব্যপ্রেরণা (আবির্ভুবৎ) প্রকট হয়। তদনন্তর (সঃ) সেই আপনি (নঃ) আমাদের (নেতা) মার্গদর্শী নেতা হন, এবং (ভূরি) প্রভূত (বাজম্) শক্তি (আ দর্ষি) সমাদর পূর্বক প্রদান করেন। এবং (অঙ্গিরোভিঃ) প্রাণাভ্যাসীদের দ্বারা (গৃণানঃ) উপদেশ প্রদান করে আপনি (গোত্রা) আমাদের পাপের গঢ়কে (রুজন্) ভঙ্গ করেন। [সরমা=বাক্ (মৈ০ সং০ ৪.৬.৪)। গোত্রঃ= mountain (আপ্টে)।]
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