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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 80

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
    सूक्त - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८०

    त्वामु॒ग्रमव॑से चर्षणी॒सहं॒ राज॑न्दे॒वेषु॑ हूमहे। विश्वा॒ सु नो॑ विथु॒रा पि॑ब्द॒ना व॑सो॒ऽमित्रा॑न्सु॒षहा॑न्कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । उ॒ग्रम् । अव॑से । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । राज॑न् । दे॒वेषु॑ । हू॒म॒हे॒ ॥ विश्वा॑ । सु । न॒: । वि॒थु॒रा । पि॒ब्द॒ना । व॒सो॒ इति॑ । अ॒मित्रा॑न् । सु॒ऽसहा॑न् । कृ॒धि॒ ॥८०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामुग्रमवसे चर्षणीसहं राजन्देवेषु हूमहे। विश्वा सु नो विथुरा पिब्दना वसोऽमित्रान्सुषहान्कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । उग्रम् । अवसे । चर्षणिऽसहम् । राजन् । देवेषु । हूमहे ॥ विश्वा । सु । न: । विथुरा । पिब्दना । वसो इति । अमित्रान् । सुऽसहान् । कृधि ॥८०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 80; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (राजन्) राजन् ! (देवेषु) समस्त विजयशील पुरुषों में से (उग्रम्) अधिक बलवान् और (चर्षणीसहम्) समस्त लोकों को अपने बल से वश करनेहारे (त्वाम्) तुझको हम (अवसे) रक्षा के लिये (हूमहे) बुलाते हैं। तू (विश्वा) समस्त (पिब्दना) अव्यक्त शब्द करने वाले गुप्त पुरुषों को (विथुरा) व्यथित, पीड़ित (सुकृधि) कर। अथवा (विथुरा) व्यथादायी पुरुषों को (पिब्दना) अप्रकट शब्द वाला होकर शान्त कर। और हे (वसो) सबको वास देनेहारे ! तू (अमित्रान्) शत्रुओं को (सुसहान्) सुख से पराजय करने योग्य (कृधि) कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंयुर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। द्वयृचं सूक्तम्॥

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