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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 81

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
    सूक्त - पुरुहन्मा देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८१

    यद्द्याव॑ इन्द्र ते श॒तं श॒तं भूमी॑रु॒त स्युः। न त्वा॑ वज्रिन्त्स॒हस्रं॒ सूर्या॒ अनु॒ न जा॒तम॑ष्ट॒ रोद॑सी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । द्याव॑: । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । श॒तम् । भूमी॑: । उ॒त । स्युरिति॒ । स्यु: ॥ न । त्वा॒ । व॒ज्रि॒न् । स॒हस्र॑म् । सूर्या॑: । अनु॑ । न । जा॒तम् । अ॒ष्ट॒ । रोद॑सी॒ इति॑ ॥८१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्द्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमीरुत स्युः। न त्वा वज्रिन्त्सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । द्याव: । इन्द्र । ते । शतम् । भूमी: । उत । स्युरिति । स्यु: ॥ न । त्वा । वज्रिन् । सहस्रम् । सूर्या: । अनु । न । जातम् । अष्ट । रोदसी इति ॥८१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 81; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (यद्) यदि (ते) तेरे लिये (शतं द्यावः) लैकड़ों द्यौलोक आकाश और (उ ते शतं भूमीः) सैकड़ों भूमियें भी (स्युः) हों और हे (वज्रिन) शक्तिमन् ! (सहस्रं सूर्याः) हजारों सूर्य और (सहस्रं जातम्) हजारों उत्पन्न संसार और (सहस्रं रोदसी) हज़ारों जमीन आस्मान हों तो भी (त्वा न अनु अष्ट) तुझे व्याप नहीं सकते। तेरी बराबरी नहीं कर सकते। अर्थात् सैकड़ों आकाश ईश्वर की अनन्तता को नहीं व्याप सकते। सैकड़ों भूमि तेरे चित् शक्ति को जीवों द्वारा माप नहीं सकतीं। सहस्रों सूर्य तेरे तेज की स्पर्द्धा नहीं कर सकते। सहस्रों जगत् पैदा होकर भी उसकी उत्पादक शक्ति को समाप्त नहीं कर सकते। औौर सैकड़ों द्यौ, पृथिवी उस पूर्ण को व्याप नहीं सकते।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। द्वयचं सूक्तम्॥

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