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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
अ॑वक्र॒क्षिणं॑ वृष॒भं य॑था॒जुरं॒ गां न च॑र्षणी॒सह॑म्। वि॒द्वेष॑णं सं॒वन॑नोऽभयंक॒रं मंहि॑ष्ठमुभया॒विन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व॒ऽक्र॒क्षिण॑म् । वृ॒ष॒भम् । य॒था॒ । अ॒जुर॑म् । गाम् । न । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् ॥ वि॒ऽद्वेष॑णम् । स॒म्ऽवन॑ना । उ॒भ॒य॒म्ऽका॒रम् । मंहि॑ष्ठम् । उ॒भ॒या॒विन॑म् ॥८५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम्। विद्वेषणं संवननोऽभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ॥ विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकारम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥८५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
विषय - राजा।
भावार्थ -
(अवक्रक्षिणम्) सबको अपने अधीन रखकर अपने प्रति आकर्षण करने वाले (वृषभम्) प्रजाओं पर समस्त सुखों के वर्षक, (अजुरं) जरा रहित, अजर, (गां न) सूर्य और महावृषभ के समान (चर्षणीसहम्) समस्त लोकों और पुरुषों को विजय करने वाले (विद्वेषणम्) विरुद्ध आत्तारी पुरुषों के द्वेषी, (संवनना) सज्जन पुरुषों के सेवनीय (उभयंकरम्) निग्रह और अनुग्रह, दण्ड और कृपा दोनों के करने में समर्थ (मंहिष्ठम्) अति पूजनीय एवं अति दानशील (उभयाविनम्) शत्रु और मित्र दोनों की रक्षा करनेहारे और स्थावर, जंगम सबके रक्षक उस परमेश्वर की राजा के समान बार बार स्तुति करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिमेध्यातिथी ऋषी। इन्द्रो देवता।
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