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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 85

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 85/ मन्त्र 4
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८५

    वि त॑र्तूर्यन्ते मघवन्विप॒श्चितो॒ऽर्यो विपो॒ जना॑नाम्। उप॑ क्रमस्व पुरु॒रूप॒मा भ॑र॒ वाजं॒ नेदि॑ष्ठमू॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । त॒र्तू॒र्य॒न्ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । वि॒प॒:ऽचित॑: । अ॒र्य: । विप॑: । जना॑नाम् ॥ उप॑ । क्र॒म॒स्व॒ । पु॒रु॒ऽरूप॑म् । आ । भ॒र॒ । वाज॑म् । नेदि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ ॥८५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम्। उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । तर्तूर्यन्ते । मघऽवन् । विप:ऽचित: । अर्य: । विप: । जनानाम् ॥ उप । क्रमस्व । पुरुऽरूपम् । आ । भर । वाजम् । नेदिष्ठम् । ऊतये ॥८५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 85; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे (मघवन्) परमेश्वर ! (विपश्चितः) समस्त कर्मों और ज्ञानों के ज्ञाता (अर्यः) आगे बढ़ने वाले (जनानां विपः) जनों के बीच में मेधावी, एवं विवेकवान् पुरुष (वि तर्तूर्यन्ते) विशेष रूप से पार हो जाते हैं। हे परमेश्वर ! तू (उपक्रमस्व) हमें प्राप्त हो। और (पुरुरूपम् वाजं) विविध प्रकार का रुचिकर अन्न और बल (आ भर) हमें प्राप्त करा। और (ऊतये) रक्षा के लिये (नेदिष्ठम्) अति समीप (उप क्रमस्व) समीप रह।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिमेध्यातिथी ऋषी। इन्द्रो देवता।

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