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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 86

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८६

    ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू। स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑णा । ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । यु॒न॒ज्मि॒ । हरी॒ इति॑ । सखा॑या । स॒ध॒ऽमादे॑ । आ॒शू इति॑ ॥ स्थि॒रम् । रथ॑म् । सु॒ऽखम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न् । प्र॒ऽजा॒नन् । वि॒द्वान् । उप॑ । या॒हि॒ । सोम॑म् ॥८६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मणा ते ब्रह्मयुजा युनज्मि हरी सखाया सधमाद आशू। स्थिरं रथं सुखमिन्द्राधितिष्ठन्प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मणा । ते । ब्रह्मऽयुजा । युनज्मि । हरी इति । सखाया । सधऽमादे । आशू इति ॥ स्थिरम् । रथम् । सुऽखम् । इन्द्र । अधिऽतिष्ठन् । प्रऽजानन् । विद्वान् । उप । याहि । सोमम् ॥८६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 86; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्, ज्ञानवन् ! अज्ञाननाशकारिन् आत्मन् मैं (सधमादे) एक साथ आनन्द अनुभव करने की समाहित दशा में, जब समस्त प्राण हर्षयुक्त और प्रफुल्लित हों तब (आशू) वेगवान्, (ब्रह्म युजा) उस महान् शक्ति आत्मा के साथ युक्त होने वाले (हरी) दुःखों के विनाशक (सखाया) समान ख्याति वाले, एक दूसरे के मित्ररूप (हरी) शरीर के धारक, प्राण और अपान दोनों को (ब्रह्मणा) परम ब्रह्म के साथ (युनज्मि) योग-अभ्यास द्वारा समाहित करता हूं। हे (इन्द्र) आत्मन् ! तू (सुखं) सुखपूर्वक (स्थिरं) स्थिर रूप से (रथम्) एक रस विद्यमान इस देह को स्थिर आसन में (अधितिष्ठन्) स्थित रहता हुआ इस पर वश करता हुआ (प्रजानन्) उत्कृष्ट ज्ञान सम्पादन करके (विद्वान्) ज्ञानवान् होकर (सोमम्) सबके प्रेरक परमेश्वर या ब्रह्मरस को (उपयाहि) प्राप्त कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥

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