अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवाः, चन्द्रमाः, इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अजरक्षत्र
सम॒हमे॒षां रा॒ष्ट्रं स्या॑मि॒ समोजो॑ वी॒र्यं बल॑म्। वृ॒श्चामि॒ शत्रू॑णां बा॒हून॒नेन॑ ह॒विषा॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒हम् । ए॒षाम् । रा॒ष्ट्रम् । स्या॒मि॒ । सम् । ओज॑: । वी॒र्य᳡म् । बल॑म् । वृ॒श्चामि॑ । शत्रू॑णाम् । बा॒हून् । अ॒नेन॑ । ह॒विषा॑ । अ॒हम् ॥१९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समहमेषां राष्ट्रं स्यामि समोजो वीर्यं बलम्। वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाहम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । अहम् । एषाम् । राष्ट्रम् । स्यामि । सम् । ओज: । वीर्यम् । बलम् । वृश्चामि । शत्रूणाम् । बाहून् । अनेन । हविषा । अहम् ॥१९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
विषय - शत्रुओं पर विजय करने के लिये अपने राष्ट्र की शक्ति बढ़ाने का उपदेश ।
भावार्थ -
(एषां) इन क्षत्रियों के (राष्ट्रम्) राज्य भार को (सं स्यामि) खूब सामर्थ्य युक्त, तीक्ष्ण और प्रबल करता हूं और (ओजः) ओज = जिस बल से शरीर में आत्मा और राष्ट्र में राजा निवास करते हैं और विघ्न बाधा आने पर भी उस शरीर या राष्ट्र में रह कर विघ्न बाधा का मुकाबला किया जाता है उस बल को और (वीर्यं) वीर्य, सामर्थ्य और (बलम्) बल, सेना-बल को भी (सं स्यामि) खूब तीक्ष्ण करता हूं और (अनेन हविषा) इस प्रकार के पुष्टिकारक हवि = अन्न से, जिससे राष्ट्रवासी, सेना-बल, देश के निमित्त अपना प्राण देने पर तैयार रहें,उस हविः = उपाय से (शत्रूणां) शत्रु, राष्ट्र के विनाशक पुरुषों के (बाहून्) बाधा डालने वाले साधनों को (अहम्) मैं (वृश्चामि) काट डालता हूं ।
सेना और राष्ट्र सेवकों का उचित चेतन, पुरस्कार, अन्न और कृपा आदि सब सन्तुष्टिकारक पदार्थ और अन्यान्य उपाय सब ‘हविः’ शब्द से कहे गये हैं ।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘श्यामि’ इति सायणाभिमतः, ह्विटनिकामितश्च। ‘पश्यामि’ इति पैप्प० सं०। (द्वि० तृ०) ‘वृश्चामि शत्रूणां बाहू समश्वानवानहम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः। विश्वेदेवा उत चन्द्रमा उतेन्दो देवता । पथ्याबृहती । ३ भुरिग् बृहती, व्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् ककुम्मतीगर्भातिजगती। ७ विराडास्तारपंक्तिः । ८ पथ्यापंक्तिः। २, ४, ५ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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