अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवाः, चन्द्रमाः, इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अजरक्षत्र
61
सम॒हमे॒षां रा॒ष्ट्रं स्या॑मि॒ समोजो॑ वी॒र्यं बल॑म्। वृ॒श्चामि॒ शत्रू॑णां बा॒हून॒नेन॑ ह॒विषा॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒हम् । ए॒षाम् । रा॒ष्ट्रम् । स्या॒मि॒ । सम् । ओज॑: । वी॒र्य᳡म् । बल॑म् । वृ॒श्चामि॑ । शत्रू॑णाम् । बा॒हून् । अ॒नेन॑ । ह॒विषा॑ । अ॒हम् ॥१९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समहमेषां राष्ट्रं स्यामि समोजो वीर्यं बलम्। वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाहम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । अहम् । एषाम् । राष्ट्रम् । स्यामि । सम् । ओज: । वीर्यम् । बलम् । वृश्चामि । शत्रूणाम् । बाहून् । अनेन । हविषा । अहम् ॥१९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
युद्धविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं (एषाम्) इन [अपने वीरों] के (राष्ट्रम्) राज्य (ओजः) शारीरिक बल, (वीर्यम्) वीरता और (बलम्) सेना दल को (सम्) भले प्रकार (संस्यामि) जोड़ता हूँ। (अहम्) मैं (शत्रूणाम्) शत्रुओं की (बाहून्) भुजाओं को (अनेन) इस (हविषा) अन्न वा आवाहन से (वृश्चामि) काटता हूँ ॥२॥
भावार्थ
राजा सत्कारपूर्वक अपने वीरों को, सामाजिक शारीरिक और ‘हविषा’ आर्थिक दशा के सुधार से सन्तुष्ट रखकर शत्रुओं का नाश करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(सम्) सम्यक् प्रकारेण। (अहम्) पुरोहितः। राजा। (एषाम्) स्ववीराणाम्। (राष्ट्रम्) अ० ३।४।१। राज्यम्। (संस्यामि) षो अन्तकर्मणि। सम्+षो संयोजने। संयोजयामि। वर्धयामि। दृढीकरोमि। (ओजः) अ० १।१२।१। शारीरिकबलम्। (वीर्यम्) वीरताम्। (बलम्) सैन्यम्। (वृश्चामि) ओव्रश्चू छेदने। छिनद्मि। (बाहून्) भुजान्। पराक्रमान्। (हविषा) अ० १।४।३। अन्नेन आवाहनेन ॥
विषय
त्यागवृत्ति द्वारा शत्रुभुज-छेदन
पदार्थ
१. (अहम्) = मैं (एषाम्) = इनके (राष्ट्रम्) = राष्ट्र को (संस्थामी) = सम्यक् तीक्ष्ण करता हूँ। (ओजः) = इनके ओज को-मानस बल को (सम्) [स्यामि] = तीक्ष्ण करता हूँ और (वीर्यम्) = इनके प्राणमयकोश को वीर्यवान् बनता हूँ, (बलम्) = इनकी शत्रुनाशक शक्ति को भी तीक्ष्ण करता हूँ। २. (अनेन हविषा) = इस हवि के द्वारा-देकर बचे हुए को खाने की वृत्ति के द्वारा-त्याग के द्वारा (अहम्) = मैं (शत्रूणां बाहून्) = शत्रुओं की बाहुओं को (वृश्चामि) = काट डालता हूँ। वस्तुत: जब राष्ट्र में त्याग की वृत्ति आ जाती है तब राष्ट्रीय शक्ति इनती बढ़ जाती है कि राष्ट्र के शत्रु छिन्न-भुज हो जाते हैं, हमारे राष्ट्र पर आक्रमण करने का उसका साहस जाता रहता है।
भावार्थ
पुरोहित को राष्ट्र को तेजस्वी बनाना है, राष्ट्र की शक्ति का वर्धन करना है, प्रजा में राष्ट्र के लिए त्याग की भावना पैदा करके शत्रुओं को छिन्न-भुज सा कर डालना है |
भाषार्थ
(एषाम्) इनके (राष्ट्रम) राष्ट्र को (अहम) मैं पुरोहित (सं स्यामि= सं श्यामि) सम्यक् तीक्ष्ण करता हूं, प्रभावशाली करता हूं, (ओजः, वीर्यम, बलम्) ओज, वीरता, शारीरिक बल को (सम, स्यामि) मैं तीक्ष्ण करता हूँ। (अनेन हविषा) संग्रामयज्ञ में या राष्ट्रयज्ञ में दी गई इस हवि द्वारा (अहम्) मैं पुरोहित (मन्त्र १) (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (बाहून्) बाहुओं को (वृश्चामि) काटता हूँ। (एषाम्) इनके अर्थात् शत्रु सैनिकों के।
टिप्पणी
[हविः के दो अभिप्राय हैं, (१) "कर" रूप में धनप्रदान स्वेच्छापूर्वक, (२) युद्ध में योद्धाओं के शरीरों की हविः।]
विषय
शत्रुओं पर विजय करने के लिये अपने राष्ट्र की शक्ति बढ़ाने का उपदेश ।
भावार्थ
(एषां) इन क्षत्रियों के (राष्ट्रम्) राज्य भार को (सं स्यामि) खूब सामर्थ्य युक्त, तीक्ष्ण और प्रबल करता हूं और (ओजः) ओज = जिस बल से शरीर में आत्मा और राष्ट्र में राजा निवास करते हैं और विघ्न बाधा आने पर भी उस शरीर या राष्ट्र में रह कर विघ्न बाधा का मुकाबला किया जाता है उस बल को और (वीर्यं) वीर्य, सामर्थ्य और (बलम्) बल, सेना-बल को भी (सं स्यामि) खूब तीक्ष्ण करता हूं और (अनेन हविषा) इस प्रकार के पुष्टिकारक हवि = अन्न से, जिससे राष्ट्रवासी, सेना-बल, देश के निमित्त अपना प्राण देने पर तैयार रहें,उस हविः = उपाय से (शत्रूणां) शत्रु, राष्ट्र के विनाशक पुरुषों के (बाहून्) बाधा डालने वाले साधनों को (अहम्) मैं (वृश्चामि) काट डालता हूं । सेना और राष्ट्र सेवकों का उचित चेतन, पुरस्कार, अन्न और कृपा आदि सब सन्तुष्टिकारक पदार्थ और अन्यान्य उपाय सब ‘हविः’ शब्द से कहे गये हैं ।
टिप्पणी
(प्र०) ‘श्यामि’ इति सायणाभिमतः, ह्विटनिकामितश्च। ‘पश्यामि’ इति पैप्प० सं०। (द्वि० तृ०) ‘वृश्चामि शत्रूणां बाहू समश्वानवानहम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। विश्वेदेवा उत चन्द्रमा उतेन्दो देवता । पथ्याबृहती । ३ भुरिग् बृहती, व्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् ककुम्मतीगर्भातिजगती। ७ विराडास्तारपंक्तिः । ८ पथ्यापंक्तिः। २, ४, ५ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Strong Rashtra
Meaning
I strengthen, refine, energise and integrate the Rashtra and the lustre, valour and power of these brave heroes, and with this kind of inputs I break the arms and forces of the enemies.
Translation
I hereby quicken the princely sway of these people. I quicken their strength, vigour and power. With this offering, I slash off the arms of the enemies., (syimi = śyāmi, rend away, slash lash, cut, from.
Translation
I quicken the energy of the empire of these people, I invigorate its splendor, strength and force, I rend away the arms of the enemies with the spirit of sacrifice.
Translation
I strengthen the sway, the might, the manly strength and army of these kings. I rend asunder, with a wise device the icemen’s disturbance.
Footnote
I: The purohit
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सम्) सम्यक् प्रकारेण। (अहम्) पुरोहितः। राजा। (एषाम्) स्ववीराणाम्। (राष्ट्रम्) अ० ३।४।१। राज्यम्। (संस्यामि) षो अन्तकर्मणि। सम्+षो संयोजने। संयोजयामि। वर्धयामि। दृढीकरोमि। (ओजः) अ० १।१२।१। शारीरिकबलम्। (वीर्यम्) वीरताम्। (बलम्) सैन्यम्। (वृश्चामि) ओव्रश्चू छेदने। छिनद्मि। (बाहून्) भुजान्। पराक्रमान्। (हविषा) अ० १।४।३। अन्नेन आवाहनेन ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(এষাম্) এঁদের (রাষ্ট্রম্) রাষ্ট্রকে (অহম্) আমি পুরোহিত (সং স্যামি=সং শ্যামি) সম্যক্-তীক্ষ্ণ করি, প্রভাবশালী করি, (ওজঃ, বীর্যম্, বলম্) তেজ, বীরত্ব, শারীরিক বলকে (সম্, স্যামি) আমি তীক্ষ্ণ করি। (অনেন হবিষা) সংগ্রাম যজ্ঞে বা রাষ্ট্রযজ্ঞে প্রদত্ত এই হবি দ্বারা (অহম্) আমি পুরোহিত (মন্ত্র ১) (শত্রূণাম্) শত্রুদের (বাহূন্) বাহুদ্বয়কে (বৃশ্চিক) ছিন্ন করি। (এবাম্) এঁদের অর্থাৎ শত্রু সৈনিকদের।
टिप्पणी
[হবিঃ এর দুটি অভিপ্রায় আছে, (১) "কর" রূপে স্বেচ্ছাপূর্বক ধনপ্রদান, (২) যুদ্ধে যোদ্ধাদের শরীরের হবিঃ।]
मन्त्र विषय
যুদ্ধবিদ্যায়া উপদেশঃ
भाषार्थ
(অহম্) আমি (এষাম্) এই [নিজের বীরদের] (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (ওজঃ) শারীরিক বল, (বীর্যম্) বীরত্ব এবং (বলম্) সেনাদলকে (সম্) উত্তমরূপে (সংস্যামি) যুক্ত/সংযোজিত/সংযোজন করি। (অহম্) আমি (শত্রূণাম্) শত্রুদের (বাহূন্) বাহুদ্বয়কে (অনেন) এই (হবিষা) অন্ন বা আবাহন দ্বারা (বৃশ্চামি) ছিন্ন করি ॥২॥
भावार्थ
রাজা সৎকারপূর্বক নিজের বীরদের, সামাজিক শারীরিক ও ‘হবিষা’ আর্থিক অবস্থার সংশোধন দ্বারা, সন্তুষ্ট রেখে শত্রুদের বিনাশ করুক ॥২॥
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