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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवाः, चन्द्रमाः, इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अजरक्षत्र
    47

    ए॒षाम॒हमायु॑धा॒ सं स्या॑म्ये॒षां रा॒ष्ट्रं सु॒वीरं॑ वर्धयामि। ए॒षां क्ष॒त्रम॒जर॑मस्तु जि॒ष्ण्वे॒षां चि॒त्तं विश्वे॑ऽवन्तु दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षाम् । अ॒हम् । आयु॑धा । सम् । स्या॒मि॒। ए॒षाम् । रा॒ष्ट्रम् । सु॒ऽवीर॑म् । व॒र्ध॒या॒मि॒ । ए॒षाम् । क्ष॒त्रम् । अ॒जर॑म् । अ॒स्तु॒ । जि॒ष्णु । ए॒षाम् । चि॒त्तम् । विश्वे॑ । अ॒व॒न्तु॒ । दे॒वा: ॥१९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एषामहमायुधा सं स्याम्येषां राष्ट्रं सुवीरं वर्धयामि। एषां क्षत्रमजरमस्तु जिष्ण्वेषां चित्तं विश्वेऽवन्तु देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषाम् । अहम् । आयुधा । सम् । स्यामि। एषाम् । राष्ट्रम् । सुऽवीरम् । वर्धयामि । एषाम् । क्षत्रम् । अजरम् । अस्तु । जिष्णु । एषाम् । चित्तम् । विश्वे । अवन्तु । देवा: ॥१९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    युद्धविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (एषाम्) इन [वीरों] के (आयुधा=०-नि) हथियारों को (संस्यामि) जोड़ता हूँ [दृढ़ करता हूँ], (एषाम्) इनके (सुवीरम्) साहसी वीरोंवाले (राष्ट्रम्) राज्य को (वर्धयामि) बढ़ाता हूँ, (एषाम्) इनका (क्षत्रम्) क्षत्रियपन (अजरम्) अजर [अटल] और (जिष्णु) विजयी (अस्तु) होवे। (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य [विजयी, कमनीय, वा प्रशंसनीय धार्मिक] गुण (एषाम्) इनके (चित्तम्) चित्त को (अवन्तु) तृप्त करें ॥५॥

    भावार्थ

    चतुर सेनापति अपने योधाओं के बाण [तोष, तुपक, धनुषादि] तरवारि, शक्ति, भाले आदि अस्त्र शस्त्र धनुर्वेद की रीति से दृढ़ बनवावे, और प्रसिद्ध वीरों का पद बढ़ाकर उत्साह बढ़ावे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(एषाम्) स्ववीराणाम्। (अहम्) पुरोहितः, सेनापतिः। (आयुधा) आङ्+युध संप्रहारे-करणे घञर्थे क। प्रहरणसाधनानि। बाणखड्गकुन्तादीनि। (सं स्यामि)। (राष्ट्रम्) म० २। (सुवीरम्) शोभनवीरयुक्तम्। (वर्धयामि) समर्धयामि। (क्षत्रम्) क्षतात् त्रायकं क्षत्रियत्वम् (अजरम्) जरारहितं सुदृढम्। (जिष्णु) म० १। (चित्तम्) अन्तःकरणम् (विश्वे) सर्वे। (अवन्तु) तर्पयन्तु। (देवाः) दिवु विजिगीषाकान्तिस्तुत्यादिषु-अच्। दिव्यानि विजयशीलानि, काम्यानि, स्तुत्यानि, धार्मिककर्माणि ॥

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    विषय

    राष्ट्र के वीरों में उत्साह का सञ्चार

    पदार्थ

    १. (एषाम्) = इनके आयुधा आयुधों को (अहम्) = मैं (संस्यामि) = तीक्ष्ण बनाता हूँ। (एषाम्) = इनके (राष्ट्रम्)- राष्ट्र को (सुवीरम्) = उत्तम वीरोंवाला बनाता हुआ (वर्धयामि) = बढ़ाता हूँ। वस्तुतः पुरोहित को ही राष्ट्र में वीरता का सञ्चार करना होता है। २. (ऐषाम्) = इनका (क्षत्रम्) = राष्ट्र को क्षतों से बचानेवाला बल (अजरम् अस्तु) = कभी जीर्ण होनेवाला न हो। इनका यह बल (जिष्णु) = सदा विजयशील हो। (विश्वेदेवाः) = राष्ट्र के सब (विद्वान् एषां चित्तम् अवन्तु) = इनके चित्त का रक्षण करें-इनके चित्तों में उत्साह की कमी न आने दें।

    भावार्थ

    पुरोहित का कर्तव्य है कि राष्ट्ररक्षक वीर क्षत्रियों में विद्वानों के द्वारा सदा उत्साह का सञ्चार कराता रहे।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं अगुआ (एषाम्) इनके (आयुधा) युद्धसाधनों को (सं स्यामि) सम्यक् तीक्ष्ण करता हूं, (एषाम्) इनके (सुवीरम्) उत्तम वीरों वाले (राष्ट्रम्) राष्ट्र को (वर्धयामि) वृद्धियुक्त करता हूँ। (एषाम्) इनका (क्षत्रम) क्षात्रबल (अजरम्) जरारहित अर्थात् अजीर्ण तथा (जिष्णु) जयशील (अस्तु) हो, (एषाम्) इनके (चितम्) मानसिक संकल्प की (विश्वेदेवाः) राष्ट्र के सब दिव्यजन (अवन्तु) रक्षा करें।

    टिप्पणी

    [संकल्प है शत्रु का पराजय करना।]

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    विषय

    शत्रुओं पर विजय करने के लिये अपने राष्ट्र की शक्ति बढ़ाने का उपदेश ।

    भावार्थ

    जिनका मैं पुरोहित हूं (एषाम् आयुधा) उन राष्ट्रवासी वीरों के हथियारों को (सं स्यामि) खूब तीक्ष्ण, प्रबल सामर्थ्यवान् बनाऊं। (एषाम्) इनके (सुवीरम् राष्ट्रम्) उत्तम वीरों से परिपूर्ण राष्ट्र को (वर्धयाभि) खूब उन्नत, परिपुष्ट करूं। जिससे (एषां क्षत्रम् अजरम्) इनका क्षात्रबल अजर, अविनाशी औौर (जिष्णु अस्तु) सदा विजयशील हो और (विश्वे देवाः) राष्ट्र के सब विद्वान् विचार शील पुरुष और अधिकारी गण (एषां) इनके (चित्तम्) चित्त, हृदय की (अवन्तु) रक्षा करें, इनके दिल न टूटने दें। सदा सद्-विचारों और उत्साह वृद्धि द्वारा उनके चित्तों को उत्साही, धीर और दृढ़ बना कर कभी निराश न होने दें ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘श्यामि’ सायणाभिमतः, पैप्प० सं०। (द्वि०) ‘वर्धयस्व’ (च०) ‘उग्रम् एषां चित्तं बहुधा विश्वरूपा’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। विश्वेदेवा उत चन्द्रमा उतेन्दो देवता । पथ्याबृहती । ३ भुरिग् बृहती, व्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् ककुम्मतीगर्भातिजगती। ७ विराडास्तारपंक्तिः । ८ पथ्यापंक्तिः। २, ४, ५ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Strong Rashtra

    Meaning

    I sharpen and sophisticate their arms and armaments, I raise and advance the Rashtra of the brave. May the Rashtra of these heroes be undecaying and imperishable, and victorious, and may the divinities of the world protect and promote the unity of their mind and resolve.

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    Translation

    I sharpen their weapons. I make their nation prosper with brave young men. May their victorious ruling power remain undiminished. May all the plies ones keep their morale high.

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    Translation

    I sharpen and strengthen the weapons of these People, I augment the power of nation accomplished with valiant heroes, victorious and undecayable be their kingdom, may all the physical and spiritual forces of the universe preserve their intentions and wishes.

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    Translation

    The weapons of these kings I whet and sharpen, with valiant heroes I increase their kingdom. Victorious be their power and ever ageless! May all learned persons promote their thoughts and wishes.

    Footnote

    I: The priest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(एषाम्) स्ववीराणाम्। (अहम्) पुरोहितः, सेनापतिः। (आयुधा) आङ्+युध संप्रहारे-करणे घञर्थे क। प्रहरणसाधनानि। बाणखड्गकुन्तादीनि। (सं स्यामि)। (राष्ट्रम्) म० २। (सुवीरम्) शोभनवीरयुक्तम्। (वर्धयामि) समर्धयामि। (क्षत्रम्) क्षतात् त्रायकं क्षत्रियत्वम् (अजरम्) जरारहितं सुदृढम्। (जिष्णु) म० १। (चित्तम्) अन्तःकरणम् (विश्वे) सर्वे। (अवन्तु) तर्पयन्तु। (देवाः) दिवु विजिगीषाकान्तिस्तुत्यादिषु-अच्। दिव्यानि विजयशीलानि, काम्यानि, स्तुत्यानि, धार्मिककर्माणि ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অহম্) আমি প্রধান/অগ্রণী (এষাম্) এঁদের (আয়ুধা) যুদ্ধসাধনাকে (সং স্যামি) সম্যক্-তীক্ষ্ণ করি, (এষাম্) এঁদের (সুবীরম্) উত্তম বীরসম্পন্ন (রাষ্ট্র) রাষ্ট্রকে (বর্ধয়ামি) বৃদ্ধিযুক্ত করি। (এষাম্) এঁদের (ক্ষত্রিয়) ক্ষাত্রবল/শারীরিক বল (অজরম্) জরারহিত অর্থাৎ অজীর্ণ ও (জিষ্ণু) জয়শীল (অস্তু) হোক, (এষাম্) এঁদের (চিত্তম্) মানসিক সংকল্পের (বিশ্বেদেবাঃ) রাষ্ট্রের সমস্ত দিব্যগণ (অবন্তু) রক্ষা করুক।

    टिप्पणी

    [সংকল্প হলো, শত্রুর পরাজয় করা।]

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    मन्त्र विषय

    যুদ্ধবিদ্যায়া উপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অহম্) আমি (এষাম্) এই [বীরদের] (আয়ুষা=০-নি) অস্ত্রাদিকে (সং স্যামি) যোগ/সংযোজিত করি [দৃঢ় করি], (এষাম্) এদের (সুবীরম্) সাহসী বীরসম্পন্ন (রাষ্ট্রম্) রাজ্যকে (বর্ধয়ামি) বিস্তৃত/সমৃদ্ধ করি, (এষাম্) এঁদের (ক্ষত্রম্) ক্ষত্রিয়ত্ব (অজরম্) অজর [অটল/দৃঢ়] এবং (জিষ্ণু) বিজয়ী (অস্তু) হোক। (বিশ্বে) সকল (দেবাঃ) দিব্য [বিজয়ী, কমনীয়, বা প্রশংসনীয় ধার্মিক] গুণ (এষাম্) এঁদের (চিত্তম্) চিত্তকে (অবন্তু) তৃপ্ত করুক ॥৫॥

    भावार्थ

    চতুর সেনাপতি নিজেদের যোদ্ধাদের বাণ [তোপ, বন্দুক, ধনুকাদি] খড়্গ, শক্তি, বর্শা/বল্লম প্রভৃতি অস্ত্র শস্ত্র ধনুর্বেদের রীতিতে দৃঢ় করুক, এবং প্রসিদ্ধ বীরের পদ বৃদ্ধি করে উৎসাহ বৃদ্ধি করুক ॥৫॥

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