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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - पञ्च प्रदिशः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त

    दु॒ह्रां मे॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॑ दु॒ह्रामु॒र्वीर्य॑थाब॒लम्। प्रापे॑यं॒ सर्वा॒ आकू॑ती॒र्मन॑सा॒ हृद॑येन च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒ह्राम् । मे॒ । पञ्च॑ । प्र॒ऽदिश॑: । दु॒ह्राम् । उ॒र्वी: । य॒था॒ऽब॒लम् । प्र । आ॒पे॒य॒म् । सर्वा॑: । आऽकू॑ती: । मन॑सा । हृद॑येन । च॒ ॥२०.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुह्रां मे पञ्च प्रदिशो दुह्रामुर्वीर्यथाबलम्। प्रापेयं सर्वा आकूतीर्मनसा हृदयेन च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुह्राम् । मे । पञ्च । प्रऽदिश: । दुह्राम् । उर्वी: । यथाऽबलम् । प्र । आपेयम् । सर्वा: । आऽकूती: । मनसा । हृदयेन । च ॥२०.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 9

    भावार्थ -
    (पञ्च प्रदिशः) पांचों मुख्य दिशाएं अथवा पांचों शिक्षक माता, पिता, गुरु, आचार्य, सुहृद् इस प्रकार का (बलम्) ज्ञान, बल प्रदान करें और (उर्वीः) उवीं द्यौ, पृथिवी, दिन, रात्रि, जल और ओषधि ये छहों महान् दिव्य शक्तियां (बलम् दुह्राम्) मुझे बल से परिपूर्ण करें (यथा) जिससे मैं (मनसा) अपने ज्ञान सामर्थ्य, मनन संकल्पों द्वारा (हदयेन च) और हृदय से (सर्वाः) सब प्रकार की (आकूतीः) शुभ मतियों, ज्ञानों को (प्र आपेयम्) प्राप्त होऊं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्वा मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-५, ७, ९, १० अनुष्टुभः। ६ पथ्या पंक्तिः। ८ विराड्जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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