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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राजासंवरण सूक्त

    इन्द्रे॑न्द्र मनु॒ष्याः परे॑हि॒ सं ह्यज्ञा॑स्था॒ वरु॑णैः संविदा॒नः। स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स्वे स॒धस्थे॒ स दे॒वान्य॑क्ष॒त्स उ॑ कल्पया॒द्विशः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ऽइन्द्र । म॒नु॒ष्या᳡: । परा॑ । इ॒हि॒ । सम् । हि । अज्ञा॑स्था: । वरु॑णै: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: ।स: । त्वा॒ । अ॒यम् । अ॒ह्व॒त् । स्वे । स॒धऽस्थे॑ । स: । दे॒वान् । य॒क्ष॒त् । स: । ऊं॒ इति॑ । क॒ल्प॒या॒त् । विश॑: ॥४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेन्द्र मनुष्याः परेहि सं ह्यज्ञास्था वरुणैः संविदानः। स त्वायमह्वत्स्वे सधस्थे स देवान्यक्षत्स उ कल्पयाद्विशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रऽइन्द्र । मनुष्या: । परा । इहि । सम् । हि । अज्ञास्था: । वरुणै: । सम्ऽविदान: ।स: । त्वा । अयम् । अह्वत् । स्वे । सधऽस्थे । स: । देवान् । यक्षत् । स: । ऊं इति । कल्पयात् । विश: ॥४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (इन्द्र, इन्द्र) हे ऐश्वर्यशील ‘इन्द्र’ नाम से पुकारने योग्य, साक्षात् इन्द्ररूप राजन् ! (मनुष्याः=मनुष्यान्) समस्त मानवों को (परा इहि) लांघ कर उनसे परे रह, उनको अपने वशकर और (वरुणैः) शासक विभाग में नियुक्त अधिकारियों या वरण करने वाले प्रजा के प्रतिनिधियों, उसको घेर कर बैठने वाले अमात्यों द्वारा (संविदानः) समस्त राष्ट्र की बातों पर विचार और सहमति कर (हि) निश्चय से तू सब कुछ (सं अज्ञास्थाः) ठीक २ प्रकार से निश्चय कर लिया कर । (सः अयम्) वह यह मनुष्य-लोक ही (त्वा) तुझ को (स्वे) अपने (सधस्थे) सभास्थान, समाज और गृहों पर (अह्वत्) आदरपूर्वक बुलाता है। (सः) वह तू राजा ही (देवान्) विद्वान् पुरुषों को (यक्षत्) स्थान पर नियुक्त करता है । (सः उ) वह राजा ही (विशः) समस्त प्रजानों को (कल्पयात्) सुव्यवस्थित करता है उनको उनके व्यापारों में लगाता है । अथवा—(स अयम्) हे प्रजाजनो ! वह राजा ही राष्ट्र-प्रजा को (स्वे सधस्थे) अपने राजभवन में (अह्वत्) बुलाकर एकत्र करता है । (स देवान् यक्षत्) विद्वानों को सादर एकत्र करता और (सः उ विशः कल्पयात्) वह ही प्रजाओं को उनके कार्यों में व्यवस्थित करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १ जगती । ५, ६ भुरिजौ । २, ३, ४, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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