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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
    सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यथा॑श्वत्थ वानस्प॒त्याना॒रोह॑न्कृणु॒षेऽध॑रान्। ए॒वा मे॒ शत्रो॑र्मू॒र्धानं॒ विष्व॑ग्भिन्द्धि॒ सह॑स्व च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अ॒श्व॒त्थ॒ । वा॒न॒स्प॒त्यान् । आ॒ऽरोह॑न् । कृ॒णु॒षे । अध॑रान् । ए॒व । मे॒ । शत्रो॑: । मू॒र्धान॑म् । विष्व॑क् । भि॒न्ध्दि॒ । सह॑स्व । च॒ ॥६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाश्वत्थ वानस्पत्यानारोहन्कृणुषेऽधरान्। एवा मे शत्रोर्मूर्धानं विष्वग्भिन्द्धि सहस्व च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अश्वत्थ । वानस्पत्यान् । आऽरोहन् । कृणुषे । अधरान् । एव । मे । शत्रो: । मूर्धानम् । विष्वक् । भिन्ध्दि । सहस्व । च ॥६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (अश्वत्थ) अश्वारोहिन् ! वीर पुरुष ! (यथा) जिस प्रकार पीपल का वृक्ष जिसको ‘अश्वत्थ’ कहा जाता है वह (वानस्पत्यान्) अन्य बड़े २ वृक्षों पर (आरोहन्) अपना मूल जमा कर और बड़ा होकर उन का सब रस स्वयं खा जाता है और उनको जीते रहने देकर भी अपने आप ही प्रधान हो जाता है (एवा) उसी प्रकार तू अपने शत्रुओं को (अधरान्) नीचे (कृणुषे) कर दे और (मे) मेरे (शत्रोः) शत्रु के (मूर्धानं) शिर को या मुख्यता को (विष्वग्) सब प्रकार से (भिन्धि) तोड़ डाल और (सहस्व च) उनको पराजित भी कर । इस सूक्त में अश्वत्थ के दृष्टान्त से वीर पुरुष को किस प्रकार वर्णित किया जाय इसकी व्याख्या इसी मन्त्र में स्पष्ट है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जगद्बीजं पुरुष ऋषिः । वनस्पतिरश्वत्थो देवता । अरिक्षयाय अश्वत्थदेवस्तुतिः । १-८ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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