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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    तान॑श्वत्थ॒ निः शृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्वैबाध॒दोध॑तः। इन्द्रे॑ण वृत्र॒घ्ना मे॒दी मि॒त्रेण॒ वरु॑णेन च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । अ॒श्व॒त्थ॒: । नि: । शृ॒णी॒हि॒ । शत्रू॑न् । वै॒बा॒ध॒ऽदोध॑त: । इन्द्रे॑ण । वृ॒त्र॒ऽघ्ना । मे॒दी । मि॒त्रेण॑ । वरु॑णेन । च॒ ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानश्वत्थ निः शृणीहि शत्रून्वैबाधदोधतः। इन्द्रेण वृत्रघ्ना मेदी मित्रेण वरुणेन च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान् । अश्वत्थ: । नि: । शृणीहि । शत्रून् । वैबाधऽदोधत: । इन्द्रेण । वृत्रऽघ्ना । मेदी । मित्रेण । वरुणेन । च ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 2

    भावार्थ -

    हे (अश्वत्थ) अश्व के उपर विराजने वाले वीर, घुड़सवार बहुयुद्धविजयी पुरुष ! तू (वृत्रघ्न्ना) विध्नकारी शत्रुओं का नाश करने हारे, (इन्द्रेण) राजा के साथ और (मित्रेण) सब के साथ स्नेह करने हारे प्रजा को मृत्यु से बचाने हारे, या भिन्न राजा और (वरुणेन च) वरुण-पुलिस और गुप्तचर के विभाग के साथ (मेदी) मित्रभाव से उनको पुष्ट करता हुआ, (वैबाधदोधतः) राष्ट्रवासियों को नाना पीड़ानों से कंपाने हारे या स्वयं कांपने वाले (शत्रून्) राष्ट्रशत्रुओं को (निःशृणीहि) सर्वथा, सब प्रकारों से विनाश कर । अर्थात् घुड़सवार वीर पुरुषों को राजा अपने संग और राष्ट्र के रक्षक पुलिस विभाग और गुप्तचर विभागों में भी नियुक्त करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    जगद्बीजं पुरुष ऋषिः । वनस्पतिरश्वत्थो देवता । अरिक्षयाय अश्वत्थदेवस्तुतिः । १-८ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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