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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    47

    तान॑श्वत्थ॒ निः शृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्वैबाध॒दोध॑तः। इन्द्रे॑ण वृत्र॒घ्ना मे॒दी मि॒त्रेण॒ वरु॑णेन च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । अ॒श्व॒त्थ॒: । नि: । शृ॒णी॒हि॒ । शत्रू॑न् । वै॒बा॒ध॒ऽदोध॑त: । इन्द्रे॑ण । वृ॒त्र॒ऽघ्ना । मे॒दी । मि॒त्रेण॑ । वरु॑णेन । च॒ ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानश्वत्थ निः शृणीहि शत्रून्वैबाधदोधतः। इन्द्रेण वृत्रघ्ना मेदी मित्रेण वरुणेन च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान् । अश्वत्थ: । नि: । शृणीहि । शत्रून् । वैबाधऽदोधत: । इन्द्रेण । वृत्रऽघ्ना । मेदी । मित्रेण । वरुणेन । च ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उत्साह बढ़ाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अश्वत्थ) हे बलवानों में ठहरनेवाले शूर [वा पीपलवृक्ष !] (वृत्रघ्ना) अन्धकार मिटानेवाले (इन्द्रेण) सूर्य से, (मित्रेण) प्रेरणा करनेवाले वायु से (च) और (वरुणेन) स्वीकार करने योग्य जल से (मेदी+सन्) स्नेही होकर (तान्) उन (वैबाधदोधतः) विविध बाधा डालनेवाले क्रोधशील (शत्रून्) शत्रुओं वा रोगों को (निः) सर्वथा (शृणीहि) मार डाल ॥२॥

    भावार्थ

    राजा सूर्यादि के समान गुणयुक्त होकर भीतरी और बाहरी वैरियों का और सद्वैद्य पीपल के प्रयोग से रोगों का नाश करके प्रजा में शान्ति रक्खे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(तान्)। प्रसिद्धान्। (अश्वत्थ)। म० १। हे अश्वेषु बलवत्सु। स्थितिशील शूररराजन्। (निः)। निः शेषम्। (शृणीहि)। शॄ हिंसायाम्। घातय (शत्रून्)। अपकारिणः। (वैबाधदोधतः)। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति विबाध+अण्। विविधं बाधः प्रतिरोधो यस्य स वैबाधः। दोधतिः क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। नैरुक्तो धातुः-शतृप्रत्ययः। वैबाधान् विबाधकान् दोधतः क्रोधशीलान्। (इन्द्रेण)। ऐश्वर्यवता सूर्येण। (वृत्रघ्ना)। ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु-क्विप्। पा० ३।२।८७। इति वृत्र+हन वधे-क्विप्। अन्धकारं हतवतः। (मेदी)। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति ञिमिदा स्नेहे-णिनि। घञन्ताद्वा मत्वर्थीय इनि। स्नेही। (मित्रेण)। अ० १।३।२। डुमिञ् प्रक्षेपणे-क्त्र। यद्वा। ञिमिदा स्नेहे-त्र। सर्वप्रेरकः। स्नेहवान्। वायुः। मध्यस्थानदेवता-निरु० १०।२१-२२। (वरुणेन)। अ० १।३।३। मध्यस्थानदेवता-निरु० १०।३। वृष्टिजलेन ॥

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    विषय

    'इन्द्र, मित्र, वरुण' से स्नेहवाला

    पदार्थ

    १. हे (अश्वत्थ) = कर्मशील पुरुषों में व्याप्त होनेवाले प्रभो! आप (वैबाधदोधत:) = विशिष्ट बाधा उत्पन्न करनेवाले तथा कम्पित करनेवाले (तान्) = उन (शत्रून्) = शत्रुओं को (नि:शृणीहि) = पूर्णरूप से हिंसित कर दीजिए। ये शत्रु हमें हिंसित करनेवाले न हों। २. इन शत्रुओं से हिंसित न होकर मैं (वृत्रन:) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले (इन्द्रेण) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से, (मित्रेण) = रोगों व मृत्यु से [पाप से] बचानेवाले प्रभु से (च) = और (वरुणेन) = द्वेषनिवारक प्रभु से (मेदी) = स्नेहवाला हो। प्रभु से स्नेहवाला बनने का अभिप्राय यही है कि मैं भी 'इन्द्र, मित्र और वरुण' बनें।

    भावार्थ

    प्रभु मेरे पीड़ाजनक शत्रुओं को विनष्ट करें। मैं 'इन्द्र, मित्र, वरुण' नामक प्रभु से स्नेहवाला होता हुआ जितेन्द्रिय, सबके प्रति सहेवाला व निद्वेष बनूँ।

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    भाषार्थ

    (अश्वत्थ) हे अश्वत्थ ! (वैबाधदोधतः) बाधा डालनेवाले और कंपा देनेवाले (तान् शत्रून्) उन शत्रुओं का (निशृणीहि) निःशेषेण विनाश कर; (वृत्रघ्ना इन्द्रेण मेदी) वृत्रघाती इन्द्र के साथ, (मित्रेण) मित्र के साथ, (च) और (वरुणेन) वरुण के साथ स्नेही तू।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में उपमान-अश्वत्थ और उपमेय-पुमान् दोनों का वर्णन है। अश्वत्थ रोग-शत्रुओं का विनाशक है। इस अर्थ में इन्द्र है विद्युत्, मित्र है सूर्य, बरुण है मेघ। इन तीन की सहायता द्वारा अश्वत्थ बढ़ता है, अतः वह इनके साथ स्नेह करता है। उपमेय-पुमान् राष्ट्रिय शत्रुओं का विनाश करता है। इस अर्थ में इन्द्र है सम्राट्, मित्र है मित्र राजा, तथा वरुण है माण्डलिक राजा। "इन्द्रश्च सम्राड् बरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। वैवाधदोधत:- विबाध+अण (स्वार्थे) +धूञ् कम्पने [यङ् लुक्+ शातृ प्रत्यय+ द्वितीया विभक्ति।]

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    विषय

    वीर सैनिकों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्वत्थ) अश्व के उपर विराजने वाले वीर, घुड़सवार बहुयुद्धविजयी पुरुष ! तू (वृत्रघ्न्ना) विध्नकारी शत्रुओं का नाश करने हारे, (इन्द्रेण) राजा के साथ और (मित्रेण) सब के साथ स्नेह करने हारे प्रजा को मृत्यु से बचाने हारे, या भिन्न राजा और (वरुणेन च) वरुण-पुलिस और गुप्तचर के विभाग के साथ (मेदी) मित्रभाव से उनको पुष्ट करता हुआ, (वैबाधदोधतः) राष्ट्रवासियों को नाना पीड़ानों से कंपाने हारे या स्वयं कांपने वाले (शत्रून्) राष्ट्रशत्रुओं को (निःशृणीहि) सर्वथा, सब प्रकारों से विनाश कर । अर्थात् घुड़सवार वीर पुरुषों को राजा अपने संग और राष्ट्र के रक्षक पुलिस विभाग और गुप्तचर विभागों में भी नियुक्त करे ।

    टिप्पणी

    ह्विटनिसायणयोर्मतेन वैबाध । ‘दोधतः’ इति पदद्वयम् पदपाठानुसारेण चैकं पदम् । (द्वि०) ‘ शत्रून् मयि बाधदोधतः’ इति पैप्प० सं० । ‘यथाश्वत्थ निष्णाभिपूर्वान् जातानुत परान्। एवा पृदन्यस्त्वभितिष्ठ सहस्त्रता’ इति चाधिकः पाठः । पैप्प० सं० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जगद्बीजं पुरुष ऋषिः । वनस्पतिरश्वत्थो देवता । अरिक्षयाय अश्वत्थदेवस्तुतिः । १-८ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Brave

    Meaning

    Ashvattha, brave hero, efficacious remedy of evil, jointly with Indra, the sun, dispeller of darkness, and in friendly combination with Mitra, the wind, and Varuna, water, uproot and destroy the disturbing, fierce and convulsive enemies. (In the human context, Indra, Mitra and Varuna may mean power, love and judgment.)

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    Translation

    With the help of the resplendent Lord (Indra), the destroyer of evil, in alliance with the Lord Friendly (Mitra) and venerable (Varuna), O Ašvattha, may you crush completely those enemies , who put up all sorts of-obstacles and try to terrorize (us).

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    Translation

    This Ashvattha Possessing ample milky substance through the power of cloud-dispelling sun, hydrogen and oxygen (gases) destroys those diseases which create convulsion and trembling.

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    Translation

    O valiant horseman, in alliance with the king, who slays the enemies and loves his subjects, the police and the C.I.D. crush down the foes of the country, who torment the people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(तान्)। प्रसिद्धान्। (अश्वत्थ)। म० १। हे अश्वेषु बलवत्सु। स्थितिशील शूररराजन्। (निः)। निः शेषम्। (शृणीहि)। शॄ हिंसायाम्। घातय (शत्रून्)। अपकारिणः। (वैबाधदोधतः)। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति विबाध+अण्। विविधं बाधः प्रतिरोधो यस्य स वैबाधः। दोधतिः क्रुध्यतिकर्मा-निघ० २।१२। नैरुक्तो धातुः-शतृप्रत्ययः। वैबाधान् विबाधकान् दोधतः क्रोधशीलान्। (इन्द्रेण)। ऐश्वर्यवता सूर्येण। (वृत्रघ्ना)। ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु-क्विप्। पा० ३।२।८७। इति वृत्र+हन वधे-क्विप्। अन्धकारं हतवतः। (मेदी)। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति ञिमिदा स्नेहे-णिनि। घञन्ताद्वा मत्वर्थीय इनि। स्नेही। (मित्रेण)। अ० १।३।२। डुमिञ् प्रक्षेपणे-क्त्र। यद्वा। ञिमिदा स्नेहे-त्र। सर्वप्रेरकः। स्नेहवान्। वायुः। मध्यस्थानदेवता-निरु० १०।२१-२२। (वरुणेन)। अ० १।३।३। मध्यस्थानदेवता-निरु० १०।३। वृष्टिजलेन ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অশ্বত্থ) হে অশ্বত্থ ! (বৈবাধদোধতঃ) বাধা প্রদায়ক এবং কম্পিতকারী (তান্ শত্রূন্) সেই শত্রুদের (নিঃশৃণীহি) নিঃশেষেণ/সম্পূর্ণরূপে বিনাশ করো; (বৃত্রঘ্না ইন্দ্রেণ মেদী) বৃত্রঘাতী ইন্দ্রের সাথে, (মিত্রেণ) মিত্রের সাথে, (চ) এবং (বরুণেন) বরুণের সাথে তুমি স্নেহ করো।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে উপমান-অশ্বত্থ এবং উপমেয়-পুমান্ দুটোরই বর্ণনা রয়েছে। অশ্বত্থ হলো রোগ-শত্রুদের বিনাশক। এই অর্থে ইন্দ্র হলো বিদ্যুৎ, মিত্র হলো সূর্য, বরুণ হলো মেঘ। এই তিনটির সহায়তা দ্বারা অশ্বত্থ বৃদ্ধিপ্রাপ্ত হয়, অতঃ সে এগুলোর সাথে স্নেহ করে। উপমেয়-পুমান্ রাষ্ট্রীয় শত্রুদের বিনাশ করে। এই অর্থে ইন্দ্র হলো সম্রাট্, মিত্র হলো মিত্র রাজা, এবং বরুণ হলো মাণ্ডলিক রাজা। "ইন্দ্রশ্চ সম্রাট বরুণশ্চ রাজা" (যজু০ ৮।৩৭)। বৈবাধদোধতঃ= বিবাধ+অণ্ (স্বার্থে)+ধূঞ্ কম্পনে [যঙ্ লুক্ + শতৃ প্রত্যয়+দ্বিতীয়া বিভক্তি।]

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    मन्त्र विषय

    উৎসাহবর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অশ্বত্থ) হে বলবানদের মাঝে স্থিত বীর [বা অশ্বত্থবৃক্ষ !] (বৃত্রঘ্না) অন্ধকার বিনাশকারী/দূরীভূতকারী (ইন্দ্রেণ) সূর্য দ্বারা, (মিত্রেণ) প্রেরণাকারী বায়ু দ্বারা (চ) এবং (বরুণেন) স্বীকার যোগ্য জল দ্বারা (মেদী+সন্) স্নেহী হয়ে (তান্) সেই (বৈবাধদোধতঃ) বিবিধ বাধাদায়ক ক্রোধশীল (শত্রূন্) শত্রুদের বা রোগসমূহকে (নিঃ) নিরন্তর (শৃণীহি) দূর/বিনাশ করো ॥২॥

    भावार्थ

    রাজা সূর্যাদির সমান গুণযুক্ত হয়ে আন্তরিক ও বাহ্যিক শত্রুর এবং সদ্বৈদ্য অশ্বত্থ এর প্রয়োগ করে রোগের নাশ করে প্রজাদের মধ্যে শান্তি রাখুক॥২॥

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