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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    52

    यथा॑श्वत्थ नि॒रभ॑नो॒ऽन्तर्म॑ह॒त्य॑र्ण॒वे। ए॒वा तान्त्सर्वा॒न्निर्भ॑ङ्ग्धि॒ यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अ॒श्व॒त्थ॒ । नि॒:ऽअभ॑न: । अ॒न्त: । म॒ह॒ति । अ॒र्ण॒वे । ए॒व । तान् । सर्वा॑न् । नि: । भ॒ङ्ग्धि॒ । यान् । अ॒हम् । द्वेष्मि॑ । ये । च॒ । माम् ॥६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाश्वत्थ निरभनोऽन्तर्महत्यर्णवे। एवा तान्त्सर्वान्निर्भङ्ग्धि यानहं द्वेष्मि ये च माम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अश्वत्थ । नि:ऽअभन: । अन्त: । महति । अर्णवे । एव । तान् । सर्वान् । नि: । भङ्ग्धि । यान् । अहम् । द्वेष्मि । ये । च । माम् ॥६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उत्साह बढ़ाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अश्वत्थ) हे वीरों में ठहरनेवाले राजन् ! [वा पीपलवृक्ष !] (यथा) जैसे (महति) बड़े (अर्णवे अन्तः) समुद्र के बीच में (निरभनः) निश्चय करके तू भद्र करनेवाला हुआ है। (एव) वैसे ही (तान् सर्वान्) उन सबको (निर्) निरन्तर (भङ्ग्धि) नष्ट कर दे, (यान्) जिन्हें (अहम्) मैं (द्वेष्मि) वैरी जानता हूँ, (च) और (ये) जो (माम्) मुझे [वैरी जानते हैं] ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को शूरवीर और सद्वैद्य होकर दुःखसागर में डूबे हुए प्रजागणों के उभारने में प्रयत्न करना चाहिये ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यथा) येन प्रकारेण। (अश्वत्थ)। म० १। हे बलवत्सु स्थितिशील ! पिप्पलवृक्ष ! (निरभनः)। भदि कल्याणकरणे-लङि हल्ङ्यादिना सिपो लोपो दश्च। पा० ८।२।७५। इति धातुदकारस्य वैकल्पिकं रुत्वम्। निरन्तरं भद्रं कृतवानसि। (महति)। विशाले। (अर्णवे)। अ० १।१०।४। समुद्रे। (निर्)। निश्चयेन। निरन्तरम्। (भङ्ग्धि)। भञ्जो आमर्दने-लोट्। भञ्जय। विदारय। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च। म० १ ॥

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    विषय

    ज्ञान-सूर्योदय

    पदार्थ

    १. हे (अश्वत्थ) = कर्मशील पुरुषो में स्थित होनेवाले प्रभो! (यथा) = जिस प्रकार (महति अर्णवे अन्तः) = इस महान् अन्तरिक्ष-समुद्र में आप (निरभन:) = [भञ्चो आमर्दने] सूर्य के आवरणभूत मेघों का विदारण करते हैं, (एव) = उसी प्रकार (तान् सर्वान्) = उन सबको भी (निर्भग्धि) = विनष्ट कर दीजिए, (यान्) = जिन्हें कि (अहम) = मैं (द्वेष्मि) = अप्रीतिकर समझता हूँ (च) = और (ये) = जो (माम) = मुझे द्वेष से देखते हैं। २. जैसे प्रभु इस महान् अन्तरिक्ष में मेघों का विदारण करते हैं, इसीप्रकार मेरे हृदयान्तरिक्ष में वे वासनारूप मेघों का विदारण करें।

    भावार्थ

    प्रभु वासनाओं का विदारण करके मेरे जीवन में ज्ञानसूर्य को उदित करें।

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    भाषार्थ

    (अश्वत्थ) हे अश्वत्थ ! (महति अर्णवे अन्तः) महान-समुद्र अर्थात् वायुमण्डल में (यथा) जिस प्रकार तू (निरभनः) नितरां शक्तिपूर्वक बढ़ा है, (एवा) इस प्रकार की शक्ति से (तान् सर्वान्) उन सबको (निर्भङ्गधि) निःशेषेण भग्न कर (ये माम्) जोकि मेरे साथ द्वेष करते हैं, (च) और (यान्) जिनके साथ मैं द्वेष करता हूँ।

    टिप्पणी

    [निरभनः=नि+रभ् राभस्ये (भ्वादिः), रभस् पूर्वक बढ़ना। अश्वत्थ, रोग निवारणार्थ, मानो वायुमण्डल में शक्तिपूर्वक बढ़ा है। वायु मंडल में रोग पैदा होते हैं, उनके निवारण के लिए। अन्तरिक्ष महार्णव है, महासमुद्र है। यथा "उत्तरस्मादधरं समुद्रम्" (ऋ० १०।९८।५) में उत्तर समुद्र द्वारा अंतरिक्ष समुद्र अभिप्रेत है, (निरुक्त २।३।१०, ११)। मन्त्र में अश्वत्थ को सम्बोधित किया है ओकि सूक्त में उपमानरूप है। इस द्वारा उपमेय भी अभिप्रेत है "पुमान् पुरुष" [मन्त्र १] वह निज राष्ट्रपति के शत्रुओं का भग्न करता है, जोकि अंतरिक्ष से वायुयानों द्वारा आक्रमण करते हैं। ऐसा आदेश राष्ट्रपति ने "पुमान्-पुरुष" को दिया है। निरभनः= नि+रभ्+ युच् (औणादिक २।७५) नकारस्य णकाराभावः छान्दसः।]

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    विषय

    वीर सैनिकों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्वत्थ) हे घुड़सवार ! वीर पुरुष ! और हे अश्व के समान युद्ध में निष्प्रकम्प पुरुष ! (यथा) जिस प्रकार से (महति) बड़े भारी (अर्णवे) सेना के समुद्र में (अन्तः) भीतर प्रवेश करके (निरभनः) शत्रुओं का मर्दन करते हो उसी रीति से (यान् अहं द्वेष्मि) जिन को मैं द्वेष करता हूं और (ये च माम्) जो मुझ को द्वेष करते हैं (तान् सर्वान्) उन सब को भी (भङ्ग्धि) विनाश कर डाल ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘निरभिनः’ इति सायणाभिमतः पाठः । ‘निर्भिन्न’ इति ह्विटनिकामितः, क्वाचित्कश्च । (तृ०) ‘निर्भिङ्ग्धिः’ इति क्वचित् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जगद्बीजं पुरुष ऋषिः । वनस्पतिरश्वत्थो देवता । अरिक्षयाय अश्वत्थदेवस्तुतिः । १-८ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Brave

    Meaning

    Ashvattha, just as you penetrate into the mighty battle and cleave the enemy forces, so pray scatter all those whom I hate to suffer and those that hate me.

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    Translation

    O Ašvattha, as you have torn apart (khadira) in the vast midspace, so may you tear off completely all of them whom I hate and who hate me. (Kha = midspace; dira = torn apart).

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    Translation

    This Ashvattha dispels away all those diseases of ours which we hate and which trouble us in such a manner as a brave soldier pierces through the great ocean of enemy’s armies and destroy.

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    Translation

    O valiant general, unwavering like a horse on the battlefield, just as thou, entering the mighty sea like the army, thou tearest apart and rendest the enemy, so rend asunder all those men who hate me and whom I detest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यथा) येन प्रकारेण। (अश्वत्थ)। म० १। हे बलवत्सु स्थितिशील ! पिप्पलवृक्ष ! (निरभनः)। भदि कल्याणकरणे-लङि हल्ङ्यादिना सिपो लोपो दश्च। पा० ८।२।७५। इति धातुदकारस्य वैकल्पिकं रुत्वम्। निरन्तरं भद्रं कृतवानसि। (महति)। विशाले। (अर्णवे)। अ० १।१०।४। समुद्रे। (निर्)। निश्चयेन। निरन्तरम्। (भङ्ग्धि)। भञ्जो आमर्दने-लोट्। भञ्जय। विदारय। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च। म० १ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অশ্বত্থ) হে অশ্বত্থ ! (মহতি অর্ণবে অন্তঃ) মহান-সমুদ্রে অর্থাৎ বায়ুমণ্ডলে (যথা) যেভাবে তুমি (নিরভনঃ) নিরন্তর শক্তিপূর্বক বর্ধিত হয়েছো, (এবা) এই প্রকারের শক্তি দ্বারা (তান্ সর্বান্) সেই সকলকে (নির্ভঙ্গ্ধি) নিঃশেষেণ/পূর্ণরূপে ভগ্ন করো (যে মাম্) যে আমার সাথে দ্বেষ করে, (চ) এবং (যার) যার সাথে আমি দ্বেষ করি।

    टिप्पणी

    [নিরভনঃ= নি+ রভ্ রাভস্যে (ভ্বাদিঃ), প্রবলভাবে বৃদ্ধি/বর্ধিত পাওয়া। অশ্বত্থ, রোগ নিবারণার্থে, যেন বায়ুমণ্ডলে শান্তিপূর্বক বৃদ্ধি পেয়েছে/বর্ধিত হয়েছে। বায়ুমণ্ডলে রোগ উৎপন্ন হয়, তার নিবারণের জন্য। অন্তরিক্ষ হলো মহার্ণব, মহাসমুদ্র। যথা "স উত্তরস্মাদধরং সমুদ্রম্” (ঋ০ ১০।৯৮।৫) এ উত্তর সমুদ্র দ্বারা অন্তরিক্ষ সমুদ্র অভিপ্রেত হয়েছে, (নিরুক্ত ২।৩।১০, ১১)। মন্ত্রে অশ্বত্থকে সম্বোধিত করা হয়েছে যা সূক্তে উপমানরূপ। এর দ্বারা উপমেয়ও অভিপ্রেত হয়েছে "পুমান্-পুরুষ" [মন্ত্র ১], সে নিজ রাষ্ট্রপতির শত্রুদের ভগ্ন করে, যে/যারা অন্তরিক্ষ থেকে বায়ুযান দ্বারা আক্রমণ করে। এমন আদেশ রাষ্ট্রপতি "পুমান্-পুরুষ" কে দিয়েছে। নিরভনঃ= নি+রভ্+যুচ্ (ঔণাদিক ২।৭৫) নকারস্য ণকারাভাবঃ ছান্দসঃ।]

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    मन्त्र विषय

    উৎসাহবর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অশ্বত্থ) হে বীরদের মধ্যে স্থিত রাজন্ ! [বা অশ্বত্থবৃক্ষ !] (যথা) যেমন (মহতি) বিশাল (অর্ণবে অন্তঃ) সমুদ্রের মাঝে (নিরভনঃ) নিশ্চিতরূপে তুমি ভদ্রকারী/কল্যাণকারী হয়েছো। (এব) তেমনই (তান্ সর্বান্) সেই সকলকে (নির্) নিরন্তর (ভঙ্গ্ধি) নষ্ট করে দাও, (যান্) যাদের (অহম্) আমি (দ্বেষ্মি) শত্রু বলে জানি, (চ) এবং (যে) যারা (মাম্) আমাকে [শত্রু মনে করে] ॥৩॥

    भावार्थ

    মনুষ্যদের শৌর্যশালী এবং সদ্বৈদ্য হয়ে দুঃখ সাগরে নিমজ্জিত প্রজাদের রক্ষা করার চেষ্টা করা উচিত ॥৩॥

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