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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 114

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उन्मोचन सूक्त

    ऋ॒तस्य॒र्तेना॑दित्या॒ यज॑त्रा मु॒ञ्चते॒ह नः॑। य॒ज्ञं यद्य॑ज्ञवाहसः शिक्षन्तो॒ नोप॑शेकि॒म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तस्‍य॑ । ऋ॒तेन॑ । आ॒दि॒त्या॒: । यज॑त्रा: । मु॒ञ्चत॑ । इ॒ह । न॒: । य॒ज्ञम् । यत् । य॒ज्ञ॒ऽवा॒ह॒स॒: । शिक्ष॑न्त: । न । उ॒प॒ऽशे॒कि॒म ॥११४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतस्यर्तेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः। यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतस्‍य । ऋतेन । आदित्या: । यजत्रा: । मुञ्चत । इह । न: । यज्ञम् । यत् । यज्ञऽवाहस: । शिक्षन्त: । न । उपऽशेकिम ॥११४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 114; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (आदित्याः) विद्वान्, ज्ञानी पुरुषो ! (यजत्राः) दानशील, यज्ञशील,, संगतिकारी सभासद् लोगो ! आप लोग (नः) हमें (ऋतस्य ऋतेन) सत्यमय परब्रह्म के सत्यज्ञान द्वारा (इह) इस लोक में (मुञ्चत) मुक्त करो, पापों के बन्धन से मुक्त होने का उपदेश करो। हे (यज्ञ-वाहसः) यज्ञमय महानात्मा परब्रह्म को अपने अपने हृदय में धारण करने वाले विद्वानो ! हम लोग (यद्) जब (यज्ञम् शिक्षन्तः) उस ब्रह्म की शिक्षा प्राप्त करते हुए अथवा उस महान् आत्मा को प्राप्त करने में यत्न करते हुए भी (न उपशेकिम) उसको प्राप्त न कर सकें तो आप (ऋतस्य ऋतेन नः मुञ्चत) उस सत्यमय ब्रह्म के सत्यज्ञान का उपदेश करके हमें मुक्ति का मार्ग बतलावें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। विश्वे देवा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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