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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उन्मोचन सूक्त
    46

    ऋ॒तस्य॒र्तेना॑दित्या॒ यज॑त्रा मु॒ञ्चते॒ह नः॑। य॒ज्ञं यद्य॑ज्ञवाहसः शिक्षन्तो॒ नोप॑शेकि॒म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तस्‍य॑ । ऋ॒तेन॑ । आ॒दि॒त्या॒: । यज॑त्रा: । मु॒ञ्चत॑ । इ॒ह । न॒: । य॒ज्ञम् । यत् । य॒ज्ञ॒ऽवा॒ह॒स॒: । शिक्ष॑न्त: । न । उ॒प॒ऽशे॒कि॒म ॥११४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतस्यर्तेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः। यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतस्‍य । ऋतेन । आदित्या: । यजत्रा: । मुञ्चत । इह । न: । यज्ञम् । यत् । यज्ञऽवाहस: । शिक्षन्त: । न । उपऽशेकिम ॥११४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 114; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पाप से मुक्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (आदित्याः) हे विद्या से प्रकाशमान (यजत्राः) पूजनीय संगतियोग्य पुरुषो ! (ऋतस्य) धर्म के (ऋतेन) सत्य व्यवहार से (इह) इस [पापकर्म] में (नः) हमें (मुञ्चत) मुक्त करो। (यत्) क्योंकि (यज्ञवाहसः) हे यज्ञ अर्थात् परमेश्वर की उपासना वा शिल्पविद्या प्राप्त करानेवाले महाशयो ! (यज्ञम्) देवताओं की पूजा (शिक्षन्तः) करने की इच्छा करते हुए हम लोग (न उपशेकिम) उसे न कर सके ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग प्रमादी आलसी पुरुषों को धार्मिक व्यवहारों में लगाकर पुरुषार्थी बनावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ऋतस्य) धर्मस्य (ऋतेन) सत्यव्यवहारेण (आदित्याः) हे विद्यया प्रकाशमानाः (यजत्राः) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति यजेरत्रन्। यष्टव्याः। पूजनीयाः संगमनीया (मुञ्चत) वियोजयत (इह) अस्मिन् पापकर्मणि (नः) अस्मान् (यज्ञम्) देवपूजनम् (यत्) यस्मात्कारणात् (यज्ञवाहसः) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति वहेरसुन्। हे यज्ञस्य परमेश्वरोपासनस्य शिल्पज्ञानस्य वा प्रापकाः (शिक्षन्तः) शक्लृ शक्तौ सनि। सनि मीमाघुरभलभशक०। पा० ७।४।५४। इत्यचः स्थान इस्। अत्र लोपोऽभ्यासस्य। पा० ७।४।५८। इत्यभ्यासलोपः। शक्तुं निष्पादयितुमिच्छन्तः (न) निषेधे (उपशेकिम) शक्लृ−लिट्। कर्तुं शक्ता बभूविम ॥

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    विषय

    यज्ञवाहसः

    पदार्थ

    १. हे (यजन्ना:) = संगतिकरण योग्य व आदरणीय (आदित्या:) = पूर्ण स्वस्थ, ज्ञानी पुरुषो! आप (इह) = इस जीवन में (न:) = हमें (ऋतस्य ऋतेन) = यज्ञ-सम्बन्धी सत्यकर्मों के द्वारा (मुञ्चत) = पाप से मुक्त करो। आपकी संगति व प्रेरणा से हम भी यज्ञशील बनते हुए पापों से मुक्त रहें। २. हे (यज्ञवाहस:) = यज्ञों को वहन करनेवाले देवो! हम (यज्ञम्) = यज्ञ (शिक्षन्तः) = करना चाहते हुए भी (यत्) = जिस पाप के कारण से न (उपशेकिम) = करने में समर्थ नहीं होते, उस पाप से हमें छुड़ाइए। आपकी प्रेरणा व उदाहरण से हम यज्ञों में प्रवृत्त होते हुए अशुभवृत्तियों से बचे रहें।

    भावार्थ

    आदित्य विद्वान् हमें यज्ञ-सम्बन्धी सत्य-कर्मों के द्वारा पाप से छुड़ाएँ। इस पाप के कारण ही हम चाहते हुए भी यज्ञ नहीं कर पाते।

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    भाषार्थ

    (यजत्राः) पूजनीय (आदित्याः) आदित्य कोटि के हे विद्वानों! (इह) इस जीवन में (ऋतस्य ऋतेन) सत्य अर्थात् सदा सत्ता वाले वेद के सत्य ज्ञान द्वारा [यज्ञ न करने के पाप से] (नः) हमें (मुञ्चत) मुक्त कर दो (यद्) जोकि (यज्ञवाहसः) यजनीय कर्मों का वहन अर्थात् सम्पादन करने वाले हे आदित्यो ! (यज्ञम् शिक्षन्तः) शक्य यज्ञ को करना चाहते हुए भी हम (न उपशेकिम) उसे कर सकने में समर्थ नहीं हो सके।

    टिप्पणी

    [शिक्षन्तः= शक्लृ शक्तौ अस्मात् सनि, अचः स्थाने इस् आदेशः, अभ्यासलोपः (अष्टा० ७।४।५६), (सायण)]

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    विषय

    पाप त्याग और मुक्ति का उपाय।

    भावार्थ

    हे (आदित्याः) विद्वान्, ज्ञानी पुरुषो ! (यजत्राः) दानशील, यज्ञशील,, संगतिकारी सभासद् लोगो ! आप लोग (नः) हमें (ऋतस्य ऋतेन) सत्यमय परब्रह्म के सत्यज्ञान द्वारा (इह) इस लोक में (मुञ्चत) मुक्त करो, पापों के बन्धन से मुक्त होने का उपदेश करो। हे (यज्ञ-वाहसः) यज्ञमय महानात्मा परब्रह्म को अपने अपने हृदय में धारण करने वाले विद्वानो ! हम लोग (यद्) जब (यज्ञम् शिक्षन्तः) उस ब्रह्म की शिक्षा प्राप्त करते हुए अथवा उस महान् आत्मा को प्राप्त करने में यत्न करते हुए भी (न उपशेकिम) उसको प्राप्त न कर सकें तो आप (ऋतस्य ऋतेन नः मुञ्चत) उस सत्यमय ब्रह्म के सत्यज्ञान का उपदेश करके हमें मुक्ति का मार्ग बतलावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। विश्वे देवा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Redemption by Yajna

    Meaning

    O brilliant sages of top Aditya order, adorable friends of humanity, constant conductors of yajna in the service of life, nature and Divinity, whatever yajna we have not been able to perform even though we are enlightened and dedicated to yajna and Dharma, pray redeem us from that sin of deprivation here in this life.

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    Translation

    O old sages, worthy of worship, may you absolve us with the eternal law of the sacrifice from the guilt, due to which, O performers of sacrifices, we, desirous of performing sacrifices have been unable to do so.

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    Translation

    Set us free by the truth of law eternal, O men of continence and wisdom and the dexter priests! when in this world we, the performer of yajnas performing yajnas fail to perform it aright.

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    Translation

    O learned persons, worthy of worship, release us, in this world, from the fetters of sin, through the true Vedic knowledge of God. O preservers of God in your heart, when we in our attempt to realize God, fail to visualize Him, show us the path of salvation, preaching unto us, the true Vedic knowledge of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ऋतस्य) धर्मस्य (ऋतेन) सत्यव्यवहारेण (आदित्याः) हे विद्यया प्रकाशमानाः (यजत्राः) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति यजेरत्रन्। यष्टव्याः। पूजनीयाः संगमनीया (मुञ्चत) वियोजयत (इह) अस्मिन् पापकर्मणि (नः) अस्मान् (यज्ञम्) देवपूजनम् (यत्) यस्मात्कारणात् (यज्ञवाहसः) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति वहेरसुन्। हे यज्ञस्य परमेश्वरोपासनस्य शिल्पज्ञानस्य वा प्रापकाः (शिक्षन्तः) शक्लृ शक्तौ सनि। सनि मीमाघुरभलभशक०। पा० ७।४।५४। इत्यचः स्थान इस्। अत्र लोपोऽभ्यासस्य। पा० ७।४।५८। इत्यभ्यासलोपः। शक्तुं निष्पादयितुमिच्छन्तः (न) निषेधे (उपशेकिम) शक्लृ−लिट्। कर्तुं शक्ता बभूविम ॥

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