अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 114/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मोचन सूक्त
47
मेद॑स्वता॒ यज॑मानाः स्रु॒चाज्या॑नि॒ जुह्व॑तः। अ॑का॒मा वि॑श्वे वो देवाः॒ शिक्ष॑न्तो॒ नोप॑ शेकिम ॥
स्वर सहित पद पाठमेद॑स्वता । यज॑माना: । स्रु॒चा । आज्या॑नि । जुह्व॑त: । अ॒का॒मा: । वि॒श्वे॒ । व॒: । दे॒वा॒: । शिक्ष॑न्त: । न । उप॑ । शे॒कि॒म॒ ॥११४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मेदस्वता यजमानाः स्रुचाज्यानि जुह्वतः। अकामा विश्वे वो देवाः शिक्षन्तो नोप शेकिम ॥
स्वर रहित पद पाठमेदस्वता । यजमाना: । स्रुचा । आज्यानि । जुह्वत: । अकामा: । विश्वे । व: । देवा: । शिक्षन्त: । न । उप । शेकिम ॥११४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप से मुक्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यजमानाः) यजमान, ईश्वर उपासक वा पदार्थों के संयोग वियोग करनेवाले विज्ञानी लोग (मेदस्वता) चिकने घृत आदि पदार्थवाले (स्रुचा) स्रुवा [चमसे] से (आज्यानि) यज्ञ के साधन, घृत, तेज आदि द्रव्यों को (जुह्वतः) होमते हुए [रहते हैं] ! (विश्वे देवाः) हे सब विद्वानों ! (वः) तुम्हारी (अकामाः) कामना न करनेवाले (शिक्षन्तः) [यज्ञ] करने की इच्छा करते हुए हम लोग (न उप शेकिम) उसे न कर सके ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य वैज्ञानिक विद्वानों के समान विद्वानों का सत्कार करके विज्ञानसिद्ध ईश्वरविद्या और शिल्पविद्या को प्राप्त करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(मेदस्वता) मेदृ मेधाहिंसनयोः−असुन्। स्निग्धपदार्थयुक्तेन (यजमानाः) ईश्वरोपासकाः। पदार्थ- संयोजकवियोजका विज्ञानिनः (स्रुचा) अ० ५।२७।५। स्रु−चिक्। स्रावयन्ति गमयन्ति हविर्येन तेन। स्रुवेण। यज्ञपात्रेण (आज्यानि) अ ५।८।१। योगक्रियासाधनानि घृततैलादिकानि (जुह्वतः) समर्पयन्तः (अकामाः) कामनारहिताः (विश्वे) सर्वे (वः) युष्माकम् (देवाः) विद्वांसः। अन्यद्यथा−म० २ ॥
विषय
मेदस्वता स्त्रुचा
पदार्थ
१. प्रतिदिन काम में आनेवाला चम्मच चिकनाईवाला हो जाता है। इस चम्मच को यहाँ 'मेदस्वान्'-मेदसवाला कहा है। (मेदस्वता) = इस चिकनाईवाले (स्त्रुचा) = चम्मच में (आज्यानि) = घृतों को जहतः करते हुए (यजमाना:) = यज्ञशील, (अकामा:) = लौकिक फलों की कामना न करनेवाले कर्तव्य-बुद्धि से यज्ञों को करनेवाले हे (विश्वेदेवा:) = देववृत्ति के सब मनुष्यो! हम भी (वः) = आपके हैं। हमें भी तो आपने अपनी ही भांति यज्ञशील बनाना था। हम (शिक्षन्तः) = यज्ञ करना चाहते हुए भी, न जाने किस अशुभ प्रभाव के कारण न (उपशेकिम) = यज्ञों को करने में समर्थ नहीं हो पाते। आप उस वृत्ति से हमें बचाइए और यज्ञ में प्रवृत्त कीजिए।
भावार्थ
देववृत्तिवाले पुरुषों की भाँति हम भी यज्ञशील बनें। सदा यज्ञ करने से हमारे चम्मच घृत की चिकनाईवाले हो जाएँ।
भाषार्थ
(यजमाना) हम यज्ञ करने वाले, (मेदस्वता) आज्य द्वारा स्निग्ध (स्रुचा) जुहू द्वारा (आज्यानि) आज्यों अर्थात् घृतों की जुह्वतः) आहुतियां देते हुए, जो (अकामाः) निष्काम हो कर, (विश्वे देवा:१) हे सब देवों ! (वः) तुम्हारे उपदेशानुसार (शिक्षन्तः) यज्ञानुष्ठान करना चाहते हुए भी (न उपशेकिम) हम निष्काम यज्ञानुष्ठान करने में शक्त नहीं हुए [उस पाप से, हमें छुड़ाओ]।
टिप्पणी
[मेदस्वता२ स्रुचा= मिदि स्नेहने (चुरादिः)। आज्य द्वारा बार-बार यज्ञों के करने से जहुएं स्निग्ध हो गई हैं। माता, पिता, आचार्य तथा महात्मा उपदेश देते हैं कि यज्ञानुष्ठान निष्काम भावना से किया करो, परन्तु फिर भी यज्ञानुष्ठान हम सकाम ही कर ही करते हैं। इन माता आदि के सदुपदेशों का भग करना पाप है। इस पाप से हम छुटकारा चाहते हैं।] [१. विश्वेदेवाः= मातृदेव, पितृदेव, आचार्य देव, अतिथिदेव, आदित्यदेव आदि। २. मेदस्वता स्रुचा= मेदस्वत्या स्रुचा। अथवा "मेदस्वता स्निग्धेन तिलादि वस्तुना यागं निष्पादयन्तः, स्रुचा च आज्यानि च जुह्वतः"।]
विषय
पाप त्याग और मुक्ति का उपाय।
भावार्थ
(यजमाना:) ब्रह्म को उपासना करते हुए हम लोग (मेदस्वता) मेद = मेघ = आत्मा और शरीर को धारण करनेवाले अन्न से युक्त (स्त्रुचा) बलप्रदाता प्राण द्वारा (आज्यानि) अपने तेजोमय इन्द्रिय रूप प्राणों को (जुह्वतः) आत्मा में लीन करते हुए (अकामाः) निष्काम, कामनारहित होकर और (शिक्षन्तः) ब्रह्म को प्राप्त करने का यत्न करके भी हम (न उपशेकिम) बन्धन से मुक्त न हो सकें तो हे (विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् पुरुषो ! (वः) आप लोग हमें ब्रह्म के सत्य ज्ञान के उपदेश द्वारा कर्म-बन्धन से मुक्त करो।
टिप्पणी
सायण ने (मेदस्वता स्त्रुचा यजमानाः) इसका अर्थ करते हुए पशुबलिमय यज्ञपरक अर्थ किया है सो असंगत है। शतपथ में—मेदो वै मेधः॥ श० ३। ८। ४। ६॥ मेघाय अन्नाय इत्येतत्॥ श० ७। ५। २। ३३॥ ऐतरेय में—मेघो देवैरनुगतो ब्रीहिरभवत्॥ ए०। ८॥ ताविमौ ब्रीहियवौ मेधः। श० १। २। ३। ३। ६, ७॥ ब्रीहि, यव आदि धान्य और पुरोडाश नाम मेघः=‘मेदः’ है, अन्न से उत्पन्न प्राण की साधना से भी यत्न करनेवाले अभ्यासी लोग जब कर्मबन्धन से मुक्त न हों तो पहुँचे हुए ज्ञानी पुरुष उनको ब्रह्म का उपदेश करें। ब्रह्मज्ञान के उपदेश के लिये ब्रह्मचर्य और योग की अष्टांग-साधना आवश्यक है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। विश्वे देवा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Redemption by Yajna
Meaning
O Vishvedevas, divinities of nature and brilliant sages, free from selfish motives and desires, we yajamanas perform the yajna pouring ghrta and offering holy materials into the fire with ladles full. Still if we fail to perform the yajna as perfectly as we ought to, pray redeem us from that sin of deprivation by your vision and divine knowledge.
Translation
Performing sacrifice with what is rich in fat, and pouring purified sacrificial butter (ajya) with the spoon, without desire, to you, O all gods, i.e., the enlightened ones, we have been unable to do so; (therefore may you absolve us from that guilt).
Translation
We, worshippers or the performers of yajnas detached pouring the ghee in the fire of yajnas with spoon full of grain as the offerings assigned to the forces of nature, if fail to do it aright let the learned men remove our mistakes.
Translation
Worshipping God, sustaining together the soul and body through diet, absorbing our organs in the soul through breath-control, being selfless and disinterested, exerting for the attainment of God, if we have failed to get release from the fetters of sin, O learned persons, free us through preaching unto us the true Vedic knowledge of God!
Footnote
Sayana makes a reference to animal sacrifice in the verse, which is inappropriate. मेदोवैमेध Shatapatha 3-8-4-6,मेधायअन्नायइत्येतत Shatapatha 7-5-2-33. The word means here diet and not the fat of an animal.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(मेदस्वता) मेदृ मेधाहिंसनयोः−असुन्। स्निग्धपदार्थयुक्तेन (यजमानाः) ईश्वरोपासकाः। पदार्थ- संयोजकवियोजका विज्ञानिनः (स्रुचा) अ० ५।२७।५। स्रु−चिक्। स्रावयन्ति गमयन्ति हविर्येन तेन। स्रुवेण। यज्ञपात्रेण (आज्यानि) अ ५।८।१। योगक्रियासाधनानि घृततैलादिकानि (जुह्वतः) समर्पयन्तः (अकामाः) कामनारहिताः (विश्वे) सर्वे (वः) युष्माकम् (देवाः) विद्वांसः। अन्यद्यथा−म० २ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal