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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 121/ मन्त्र 4
सूक्त - कौशिक
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सुकृतलोकप्राप्ति सूक्त
वि जि॑हीष्व लो॒कं कृ॑णु ब॒न्धान्मु॑ञ्चासि॒ बद्ध॑कम्। योन्या॑ इव॒ प्रच्यु॑तो॒ गर्भः॑ प॒थः सर्वाँ॒ अनु॑ क्षिय ॥
स्वर सहित पद पाठवि । जि॒ही॒ष्व॒ । लो॒कम् । कृ॒णु॒ । ब॒न्धात् । मु॒ञ्चा॒सि॒ । बध्द॑कम् । योन्या॑:ऽइव । प्रऽच्यु॑त: । गर्भ॑: । प॒थ: । सर्वा॑न् । अनु॑ । क्षि॒य॒ ॥१२१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वि जिहीष्व लोकं कृणु बन्धान्मुञ्चासि बद्धकम्। योन्या इव प्रच्युतो गर्भः पथः सर्वाँ अनु क्षिय ॥
स्वर रहित पद पाठवि । जिहीष्व । लोकम् । कृणु । बन्धात् । मुञ्चासि । बध्दकम् । योन्या:ऽइव । प्रऽच्युत: । गर्भ: । पथ: । सर्वान् । अनु । क्षिय ॥१२१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 121; मन्त्र » 4
विषय - त्रिविध बन्धन से मुक्ति।
भावार्थ -
हे जीव ! इस बन्धनमय लोक = शरीर को (वि जिहीष्व) विशेष ज्ञानपूर्वक निःसंग हो, परित्याग कर। अथवा (वि जिहीष्व) नाना शरीरों में गति कर, (लोकं कृणु) और अपने प्राप्त होने योग्य उत्तम लोक को स्वयं अपने कर्मबल से सम्पादन कर, (बद्धकम्) अपने आप बँधे हुए अपने को तू (बन्धात्) बन्धन से (मुञ्चासि) छुड़ा। और (योन्याः) योनि से (प्रच्युतः) पूर्ण रूप से बाहर आये हुए (गर्भः-इव) बालक के समान (सर्वान्) सब (पथः) मार्गों में, लोकों में (अनु) अपनी इच्छा अनुकूल (क्षिय) निवास कर, उनमें विचर। मुक्तात्मा यथासंकल्प लोकों में विचरते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्तदैवत्यम्। १-२ त्रिष्टुभौ। ३, ४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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