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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 131/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त

    अनु॑मतेऽन्वि॒दं म॑न्य॒स्वाकू॑ते॒ समि॒दं नमः॑। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ऽमते । अनु॑ । इ॒दम् । म॒न्य॒स्व॒ । आऽकू॑ते । सम् । इ॒दम् । नम॑: । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुमतेऽन्विदं मन्यस्वाकूते समिदं नमः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽमते । अनु । इदम् । मन्यस्व । आऽकूते । सम् । इदम् । नम: । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 131; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (अनुमते) परस्पर प्रेमपूर्वक पतिपत्नीभाव से रहने के लिये एक दूसरे के प्रति प्राप्त अनुमते ! एक दूसरे को स्वीकार करने वाले भाव ! (अनु इदं मन्यस्व) तू ही इस प्रकार परस्पर स्मरण करने और एक दूसरे के वियोग में दुःखी होने के लिये अनुमति देता है। और हे (आकूते) मानस संकल्प ! हार्दिक भाव ! तू भी (इदम्) इसी प्रकार के (नमः) परस्पर के आदर प्रेम के झुकाव को (सं अनुमन्यस्व) स्वीकार करता है। (देवाः प्रहिणुत स्मरम्, असौ माम् अनुशोचतु) हे विद्वान् पुरुषो ! मेरे प्रियतम व्यक्ति में प्रेमपूर्वक स्मरण करने के भाव को जागृत करो, जिससे वह मुझे स्मरण करके मेरे लिये वियोग दुःख को अनुभव करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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