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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 136/ मन्त्र 3
सूक्त - वीतहव्य
देवता - नितत्नीवनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - केशदृंहण सूक्त
यस्ते॒ केशो॑ऽव॒पद्य॑ते॒ समू॑लो॒ यश्च॑ वृ॒श्चते॑। इ॒दं तं वि॒श्वभे॑षज्या॒भि षि॑ञ्चामि वी॒रुधा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । केश॑: । अ॒व॒ऽपद्य॑ते । सऽमू॑ल: । य: । च॒ । वृ॒श्चते॑ । इ॒दम् । तम् । वि॒श्वऽभे॑षज्या । अ॒भि । सि॒ञ्चा॒मि॒ । वी॒रुधा॑ ॥१३६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते केशोऽवपद्यते समूलो यश्च वृश्चते। इदं तं विश्वभेषज्याभि षिञ्चामि वीरुधा ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । केश: । अवऽपद्यते । सऽमूल: । य: । च । वृश्चते । इदम् । तम् । विश्वऽभेषज्या । अभि । सिञ्चामि । वीरुधा ॥१३६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 136; मन्त्र » 3
विषय - केशवर्धनी नितत्नी ओषधि।
भावार्थ -
हे केशरोगिन् ! (यः ते केशः) जो तेरा केश (अवपद्यते) झड़ता है, (यः च समूलः वृश्चते) और जो केश मूलसहित टूट भाता है, (तम्) उन सब केशों को (विश्व भेषज्या वीरुधा) केश के सब रोगों को दूर करने वाली लता के रस से (अभि-षिञ्चामि) भिगोता हूँ। इससे सब केश के रोग छूट जायेंगे। कौशिक एवं सायण ने केशों के रोग की निवृत्ति के लिए काकमाची, जीवन्ती और भृंगराज का प्रयोग लिखा है। राजनिघण्टु के अनुसार ‘देवी’ ओषधि से मूर्वा, स्पृक्का, सहदेवी, देवद्रोणी, केसर और आदित्यभक्ता, ये छः ओषधि ली जाती हैं। काकमाची से काकादनी ओषधि लेनी चाहिये क्योंकि वही राजनिघण्टु के अनुसार ‘केश्या’ है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - केशवर्धनकामो वीतहव्योऽथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता १-२ अनुष्टुभौ। २ एकावसाना द्विपदा साम्नी बृहती। तृचं सूक्तम्॥
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