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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 136/ मन्त्र 2
सूक्त - वीतहव्य
देवता - नितत्नीवनस्पतिः
छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी बृहती
सूक्तम् - केशदृंहण सूक्त
दृंह॑ प्र॒त्नान् ज॒नयाजा॑तान् जा॒तानु॒ वर्षी॑यसस्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठदृंह॑ । प्र॒त्नान् । ज॒नय॑ । अजा॑तान् । जा॒तान् । ऊं॒ इति॑ । वर्षी॑यस: । कृ॒धि॒ ॥१३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दृंह प्रत्नान् जनयाजातान् जातानु वर्षीयसस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठदृंह । प्रत्नान् । जनय । अजातान् । जातान् । ऊं इति । वर्षीयस: । कृधि ॥१३६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 136; मन्त्र » 2
विषय - केशवर्धनी नितत्नी ओषधि।
भावार्थ -
हे ओषधि ! (प्रत्नान्) पुराने केशों को (दंह) दृढ़ कर और (अजातान्) जिस स्थान पर केश उत्पन्न होने चाहियें परन्तु नहीं होवें उस स्थान पर केशों को भी (जनय) उत्पन्न कर। और (जातान्) उत्पन्न हुए केशों को (वर्षीयसः कृधि) बड़ा लम्बा या चिरस्थायी कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - केशवर्धनकामो वीतहव्योऽथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता १-२ अनुष्टुभौ। २ एकावसाना द्विपदा साम्नी बृहती। तृचं सूक्तम्॥
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