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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 109

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
    सूक्त - बादरायणिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त

    घृ॒तम॑प्स॒राभ्यो॑ वह॒ त्वम॑ग्ने पां॒सून॒क्षेभ्यः॒ सिक॑ता अ॒पश्च॑। य॑थाभा॒गं ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णा मद॑न्ति दे॒वा उ॒भया॑नि ह॒व्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम् । अ॒प्स॒राभ्य॑: । व॒ह॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । पां॒सून् । अ॒क्षेभ्य॑: । सिक॑ता: । अ॒प: । च॒ । य॒था॒ऽभा॒गम् । ह॒व्यऽदा॑तिम् । जु॒षा॒णा: । मद॑न्ति । दे॒वा: । उ॒भया॑नि । ह॒व्या ॥११४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतमप्सराभ्यो वह त्वमग्ने पांसूनक्षेभ्यः सिकता अपश्च। यथाभागं हव्यदातिं जुषाणा मदन्ति देवा उभयानि हव्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम् । अप्सराभ्य: । वह । त्वम् । अग्ने । पांसून् । अक्षेभ्य: । सिकता: । अप: । च । यथाऽभागम् । हव्यऽदातिम् । जुषाणा: । मदन्ति । देवा: । उभयानि । हव्या ॥११४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! तपस्विन् ! (त्वम्) तू (अप्सराभ्यः) ज्ञान मार्गों में सरण करनेहारी इन्द्रियों के लिये (घृतम्) पुष्टिकारक घृत और प्रकाशस्वरूप ज्ञान को (वह) प्राप्त कर, और (अक्षेभ्यः) क्रीड़ाशील कर्मेन्द्रियों के लिये (पांसून्) भूमि प्रदेश, (सिकताः) सेचनद्रव्य या बालू के समान रूक्ष पदार्थ और (अपः च) शोधन पदार्थ, जल को प्राप्त कर। इस प्रकार (देवाः) शरीर में क्रीड़ा करने वाले हर्षशील या गतिशील इन्द्रियगण (यथा-भागम्) अपनी सेवनशक्ति के अनुसार (हव्य-दातिम्) भोग्य अन्न के भाग को (जुषाणाः) प्राप्त करते हुए (उभयानि) वनस्पतिर्षो से उत्पन्न अन्न, और पशुओं से उत्पन्न घृत, दूध आदि दोनों प्रकार के (हव्या) हव्य = भोग योग्य अन्न पदार्थों को प्राप्त कर (मदन्ति) प्रसन्न रहते हैं। अर्थात् ज्ञानशील इन्द्रियों को घृत आदि स्निग्ध पदार्थ द्वारा अधिक ज्ञान-ग्रहणशक्ति से सम्पन्न बनाना चाहिए और कर्मेन्द्रिय को धूलि, मिट्टी, रेता और जल स्पर्श से कठोर, पुष्ट और शुद्ध, द्वन्द्व-सहिष्णु बनाना चाहिए। राजा के पक्ष में—राजा (अप्सराभ्यः) प्रजाओं को घृत आदि स्निग्ध एवं पुष्टिकारक पदार्थ अनायास प्राप्त करावे। और अक्ष = अपने चर-पुरुषों को भूमि के स्थलों में, मरुओं में और जल प्रदेशों में कार्य के लिए भेजे। इस प्रकार समस्त राष्ट्रवासी लोग देवतुल्य रहकर अपने अधिकार के सदृश अपना वेतन भोगते हुए आनन्द प्रसन्न रहें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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