अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 109/ मन्त्र 6
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
संव॑सव॒ इति॑ वो नाम॒धेय॑मुग्रंप॒श्या रा॑ष्ट्र॒भृतो॒ ह्यक्षाः। तेभ्यो॑ व इन्दवो ह॒विषा॑ विधेम व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽव॑सव: । इति॑ । व॒: । ना॒म॒ऽधेय॑म् । उ॒ग्र॒म्ऽप॒श्या: । रा॒ष्ट्र॒ऽभृत॑: । हि । अ॒क्षा: । तेभ्य॑: । व॒: । इ॒न्द॒व॒: । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम्॥११४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
संवसव इति वो नामधेयमुग्रंपश्या राष्ट्रभृतो ह्यक्षाः। तेभ्यो व इन्दवो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽवसव: । इति । व: । नामऽधेयम् । उग्रम्ऽपश्या: । राष्ट्रऽभृत: । हि । अक्षा: । तेभ्य: । व: । इन्दव: । हविषा । विधेम । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम्॥११४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 6
विषय - ब्रह्मचारी का इन्द्रियजय और राजा का अपने चरों पर वशीकरण।
भावार्थ -
हे (अक्षाः) राजा के आंख स्वरूप चर लोगो, सुभटो ! (वः) तुम्हारा (नामधेयम्) नाम (सं वसवः) ‘सं-वसु’ है. तुम एकत्र, सेना और संस्था बनाकर, संगठित होकर छावनियों, सेनादलों या संस्थाओं में रहने से ‘संवसु’ कहाते हो। तुम (राष्ट्र-भृतः) राष्ट्र को धारण करने वाले राजा के या स्वयं राष्ट्र धारक (उग्र पश्याः) उग्रता से शत्रु पर देखने वाले, या देखने में भयानक (अक्षाः) ‘अक्ष’ राजा के इन्द्रियरूप हो। हे (इन्दवः) तेजस्वी पुरुषो ! हम (तेभ्यः) उन (वः) आप लोगों का (हविषा) आदि द्रव्यों से (विधेम) सत्कार करें और आप द्वारा राष्ट्ररक्षा के सम्पादन होने के कारण (वयं) हम प्रजागण (रयीशाम्) धनों और बलों के (पतयः) स्वामी (स्याम) हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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