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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अनुमतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनुमति सूक्त

    अन्विद॑नुमते॒ त्वं मंस॑से॒ शं च॑ नस्कृधि। जुषस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि ररास्व नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । इत् । अ॒नु॒ऽम॒ते॒ । त्वम् । मंस॑से । शम् । च॒ । न॒: । कृ॒धि॒ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । र॒रा॒स्व॒। न॒: ॥२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्विदनुमते त्वं मंससे शं च नस्कृधि। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि ररास्व नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । इत् । अनुऽमते । त्वम् । मंससे । शम् । च । न: । कृधि । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । ररास्व। न: ॥२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (अनु-मते) अनुज्ञा करनेहारी सभे ! (त्वम्) तू (इदम्) इस सब कार्य-व्यवस्था को (अनु मंससे) समाज की व्यवस्था और हित के अनुकूल विचार करती है। और (नः) हमारे लिये (शं च कृधि) कल्याण और सुखदायी कार्यों को करती है। हे (देवि) विद्वानों से बनी सभे ! (आ-हुतं) हमारे दिये (हव्यम्) धन और अन्न भादि पदार्थ को (जुषस्व) तू प्रेमपूर्वक स्वीकार कर और (नः) हमें (प्रजां) उत्तम सत् प्रजा का (ररास्व) प्रदान कर। इयं वा अनुमतिः, स यत्कर्म शक्नोति कर्त्तुम् यच्चिकीर्षति इयं हास्मै तदनुमन्यते। श० ५। २। ३। ४॥ इयं वा अनुमतिः। इयमेवास्मै राज्यमनुमन्यते। तै० १। ६। १। ४–५॥ जो आदमी जिस प्रकार का काम करने में समर्थ हो था जो कोई जिस काम को करना चाहता है उसे यह प्रतिनिधि सभा या लोकसभा उसकी अनुमति [ अनुज्ञा = मंजूरी ] देती है। ‘अनुमति’ नामक लोकसभा ही इस राजा को राज्य का अधिकार प्रदान करती है। अनुमती राकेति देवपत्न्यौ इति नैरुक्ताः। अनुमतिरनुमननात्। निरु० दैवत० ५। ३। ८॥ देवों, विद्वानों का पालन करनेवाली सभा ‘अनुमति’ और ‘राका’ कहाती है। इसी निरुक्ति से, स्त्री भी ‘अनुमति’ और ‘राका’ कही जाती है। पुरुष अपने सब घर के कार्य अपनी स्त्री की अनुमति से करे। उसके पक्ष में—हे अनुमते स्त्रि ! तू हमें इस सब गृह कार्य में अनुमति दे और हमें सुख शान्ति प्रदान कर। हम पुरुषों के प्रदान किये धन ‘अन्न’ वस्त्र आदि को स्वीकार करें और हे देवि ! उत्तम प्रजा को उत्पन्न कर। वेद की दृष्टि में देह, गृह, समाज, और राज्य और समस्त जगत् इन पांचों की रचना, और इनके कार्य और प्रबन्ध समान रूप से होने उचित हैं। उन सबकी रचना के सिद्धान्तों का वर्णन भी समान शब्दों में वेद ने किया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अनुमतिर्देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ४ भुरिक्। ५, ६ अतिशक्वरगर्भा अनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥

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