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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - भेषजम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्यानिवारण सूक्त
जना॑द्विश्वज॒नीना॑त्सिन्धु॒तस्पर्याभृ॑तम्। दू॒रात्त्वा॑ मन्य॒ उद्भृ॑तमी॒र्ष्याया॒ नाम॑ भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठजना॑त् । वि॒श्व॒ऽज॒नीना॑त् । सि॒न्धु॒त: । परि॑ । आऽभृ॑तम् । दू॒रात् । त्वा॒ । म॒न्ये॒ । उत्ऽभृ॑तम् । ई॒र्ष्याया॑: । नाम॑ । भे॒ष॒जम् ॥४६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
जनाद्विश्वजनीनात्सिन्धुतस्पर्याभृतम्। दूरात्त्वा मन्य उद्भृतमीर्ष्याया नाम भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठजनात् । विश्वऽजनीनात् । सिन्धुत: । परि । आऽभृतम् । दूरात् । त्वा । मन्ये । उत्ऽभृतम् । ईर्ष्याया: । नाम । भेषजम् ॥४६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
विषय - ईर्ष्या के दूर करने का उपाय।
भावार्थ -
ईर्ष्या, दाह या दूसरे की उन्नति को देखकर जलने के बुरे स्वभाव को दूर करने के उपाय का उपदेश करते हैं। हे ईर्ष्या दूर करने के उपाय रूप ओषधे ! तू। (ईर्ष्यायाः नाम) ईर्ष्या को झुकाने या दबाने का उत्तम साधन है, इसी से उसका (भेषजम्) इलाज या ईर्ष्या नाम के मानस रोग की उत्तम चिकित्सा है। (त्वा) तुझको मानो (दूरात्) दूर से (उद्-भृतम्) उखाड़ कर लाया गया (मन्ये) मानता हूं। तुझको (विश्व-जनीनात्) समस्त जनों के हितकारी, (सिन्धुतः) नदी या समुद्र के समान विशाल उपकारी, सबके प्रति उदार मनुष्य से (परि आभृतम्) प्राप्त किया जाता है। जब हृदय में ईर्षा के भाव उदय हों उन को दबाने के लिये या दूर करने के लिये उन लोकोपकारी महापुरुषों का ध्यान करना चाहिये जो अपनी सर्वस्व सम्पत्ति को नदी के समान परोपकार में बहा देते हैं। और अपने आप उसका भोग नहीं करते। दूसरे के बढ़ते यश और कीर्ति से न जल कर स्वयं यशस्वी और सच्चे परोपकारी बनें। केवल ईर्ष्या में जलने से कोई बड़ा नहीं हो सकता।
टिप्पणी -
पञ्चपटलिकायां द्वयृचं सूक्तम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
प्रस्कण्व ऋषिः। ईर्ष्यापनयनम् भेषजं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। द्वयृचं सूक्तम्॥
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