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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 46

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - सिनीवाली छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सिनीवाली सूक्त

    या सु॑बा॒हुः स्व॑ङ्गु॒रिः सु॒षूमा॑ बहु॒सूव॑री। तस्यै॑ वि॒श्पत्न्यै॑ ह॒विः सि॑नीवा॒ल्यै जु॑होतन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । सु॒ऽबा॒हु: । सु॒ऽअ॒ङ्गु॒रि: । सु॒ऽसूमा॑ । ब॒हु॒ऽसूव॑री । तस्यै॑ । वि॒श्पत्न्यै॑ । ह॒वि: । सि॒नी॒वा॒ल्यै । जु॒हो॒त॒न॒ ॥४८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या सुबाहुः स्वङ्गुरिः सुषूमा बहुसूवरी। तस्यै विश्पत्न्यै हविः सिनीवाल्यै जुहोतन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । सुऽबाहु: । सुऽअङ्गुरि: । सुऽसूमा । बहुऽसूवरी । तस्यै । विश्पत्न्यै । हवि: । सिनीवाल्यै । जुहोतन ॥४८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    पूर्व मन्त्र में कही विश्पत्नी-सार्वजनिक सभा, पृथिवी और स्त्री तीनों का श्लेष से वर्णन करते हैं। (या) जो स्त्री (सुबाहुः) उत्तम बाहुओं वाली, (सु-अङ्गुरिः) उत्तम अंगुलियों वाली, (सुसूमा) उत्तम उत्पादक अंगों वाली, सुभगा, पृथुजघना, (बहु-सूवरी) बहुत से अधिक से अधिक दश पुत्रों को उत्पन्न करने में समर्थ है, (तस्यै) उस (सिनीवाल्यै) पत्नी के लिये (हविः जुहोतन) हवि = अन्न नित्य प्रदान करो। सार्वजनिक सभा के पक्ष में—(या सुबाहुः) जो उत्तम वीर भटों द्वारा सब विघ्नों को बांधने वाली (सु-अङ्गुरिः) सब उत्तम राष्ट्रीय अंगों वाली, (सू-सूमा) राष्ट्र में जल तथा दूध का उत्तम प्रबन्ध करने वाली, (बहु-सूवरी) बहुत प्रकार की राष्ट्रीय प्रेरणाओं की आज्ञाएं देने वाली है (तस्यै विश्पत्न्यै) उस सार्वजनिक सभा के लिये सब लोग (हविः जुहोतन) अपना अपना भाग प्रदान करें। पृथिवी भी क्षत्रियों द्वारा ‘सुबाहु’ देशवासियों द्वारा, उत्तम देशों द्वारा ‘सुअङ्गुरि’, नाना पुरुषों, अन्नों वनस्पतियों के उत्पादन से ‘सु-षूमा' और ‘बहु-सूवरी’ है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। विश्पत्नी देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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