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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 46

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - सिनीवाली छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सिनीवाली सूक्त

    या वि॒श्पत्नीन्द्र॒मसि॑ प्र॒तीची॑ स॒हस्र॑स्तुकाभि॒यन्ती॑ दे॒वी। विष्णोः॑ पत्नि॒ तुभ्यं॑ रा॒ता ह॒वींषि॒ पतिं॑ देवि॒ राध॑से चोदयस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । वि॒श्पत्नी॑ । इन्द्र॑म् । असि॑ । प्र॒तीची॑ । स॒हस्र॑ऽस्तुका । अ॒भि॒ऽयन्ती॑ । दे॒वी । विष्णो॑: । प॒त्नि॒ । तुभ्य॑म् । रा॒ता । ह॒वींषि॑ । पति॑म् । दे॒वि॒ । राध॑से । चो॒द॒य॒स्व॒ ॥४८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या विश्पत्नीन्द्रमसि प्रतीची सहस्रस्तुकाभियन्ती देवी। विष्णोः पत्नि तुभ्यं राता हवींषि पतिं देवि राधसे चोदयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । विश्पत्नी । इन्द्रम् । असि । प्रतीची । सहस्रऽस्तुका । अभिऽयन्ती । देवी । विष्णो: । पत्नि । तुभ्यम् । राता । हवींषि । पतिम् । देवि । राधसे । चोदयस्व ॥४८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (देवि) देवि ! पति की कामना करने वाली ! तू अपने (पतिम्) पति को (राधसे) धन और यश प्राप्त करने के लिए (चोदयस्व) प्रेरित कर। उसी प्रकार हे (विष्णोः पत्नि) व्यापक सार्वभौम राजा या तेरे हृदय में व्यापक प्रियतम की (पत्नि) पालिके ! राजसभे ! (तुभ्यम्) तेरे निमित्त तुझे (हवींषि) पर्याप्त साधन और अधिकार (राता) प्रदान किये गये हैं। यह (विश्पत्नी) पूर्वोक्त प्रजातन्त्र शासन की वह प्रतिनिधि सभा है. (या) जो (देवी) विद्वानों की बनी हुई है, और (सहस्र-स्तुका) सहस्रों संघों को अपने भीतर मिलाये हुए (अभि-यन्ती) प्रकट होती हुई. (इन्द्रं) राजा या पति के भी (प्रतीची) सन्मुख उसके समान शक्ति वाली (असि) है। ऐसी है (पत्नि) गृहपालिके, राष्ट्रपालिके, जन-राजसभे ! तू अपने (पति) पति, सभापति या राष्ट्रपति को (राधसे) पुत्र, यश और अर्थ प्राप्ति के लिए न्यायमार्ग में (चोदयस्व) प्रेरित कर। ‘नाविष्णुः पृथिवीपतिः’ इस पुरानी किंवदन्ती का यही मन्त्र मूल है। राजा को वेद ‘विष्णु’ कहता है। वह ‘विपत्नी’ का पति है। इन्द्र राजा है और विष्णु राष्ट्रसभा का सभापति है। वह पूर्व अमावस्या का वर्णन हुआ। अमावास्या नाम स्त्री का है अमा=सह वसते पत्या इति अमावास्या। जो पति के साथ रहे। ‘अमा’ एक साथ जिसमें सब प्रजाएं ‘वास्या’ बैठ सके। जनरल कान्फ्रेन्स, महासभा, साधारण सभा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। विश्पत्नी देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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