Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 48

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - राका छन्दः - जगती सूक्तम् - राका सूक्त

    यास्ते॑ राके सुम॒तयः॑ सु॒पेश॑सो॒ याभि॒र्ददा॑सि दा॒शुषे॒ वसू॑नि। ताभि॑र्नो अ॒द्य सु॒मना॑ उ॒पाग॑हि सहस्रापो॒षं सु॑भगे॒ ररा॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । ते॒ । रा॒के॒ । सु॒ऽम॒तय॑: । सु॒ऽपेश॑स: । याभि॑: । ददा॑सि । दा॒शुषे॑ । वसू॑नि । ताभि॑: । न॒: । अ॒द्य । सु॒ऽमना॑: । उ॒प॒ऽआग॑हि । स॒ह॒स्र॒ऽपो॒षम् । सु॒ऽभ॒गे॒ । ररा॑णा॥५०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि। ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रापोषं सुभगे रराणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । ते । राके । सुऽमतय: । सुऽपेशस: । याभि: । ददासि । दाशुषे । वसूनि । ताभि: । न: । अद्य । सुऽमना: । उपऽआगहि । सहस्रऽपोषम् । सुऽभगे । रराणा॥५०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 48; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (राके) सुखप्रदे ! पूर्णप्रकाशयुक्त स्त्रि ! (याः) जो (ते) तेरी (सु-पेशसः) सुन्दर कान्तिवाली (सु-मतयः) उत्तम बुद्धियां, उत्तम विचार हैं (याभिः) जिन्हों से (दाशुषे) अपने सर्वस्व अर्पण करने वाले प्रियतम पति को (वसूनि) नाना प्रकार के जीवन के सुख और नाना धन (ददासि) प्रदान करती है (ताभिः) उन उत्तम विचारों से (सु-मनाः) सदा प्रसन्नचित्त होकर (नः) हम, प्रजावासियों को हे (सु-भगे) सौभाग्यवति ! (रराणा) नाना प्रकार के आनन्द प्रदान करती हुई या नाना प्रकार से आनन्द प्रसन्न होकर (सहस्र-पोषम्) सब प्रकार के पुष्टि, धन धान्य सम्पत्ति को (उप-आ-गहि) प्राप्त करा। उत्तम महिलाएं जिन उत्तम विचारों से अपने पतियों को सुखकारी होती हैं उन विचारों और सत्-कर्मों से अपने सम्बन्धी और पड़ोसियों को भी सुखकारी हों। विश्पत्नी पक्ष में—राका भी उस राजसभा का नाम है जिसमें राजा स्वयं १६ या २० अमात्यों सहित राष्ट्र के कार्यों का विचार करता है। कार्यों की प्रारम्भिक अनुमति प्राप्त करने के लिये ‘अनुमति’ नामक सभा का वर्णन पूर्व आ चुका है। यह ‘उत्तरा’ उससे भी उत्कृष्ट राजसभा है जिससे अंतिम निर्णय प्राप्त करके राजा अपने राष्ट्र में कार्य करे। इस पक्ष में मन्त्रों की योजना निम्नलिखित रूप में जाननी चाहिए। (१) (राकाम् अहं सुहबा सुष्टुती हुवे) राज सभा को मैं स्वयं सुलाता हूं (शृणोतु नः सुभगा) वह श्रीमती राजसभा मेरे निर्णय को सुने। (बोधतु त्मना) स्वयं विचारे। (अच्छिद्यमानया सूच्या सीव्यतु) टूटी सूई से जैसे फटे वस्त्रों को सिया जाता है उसी प्रकार वह विचार के योग्य सब अंगों को क्रम से सूक्ष्म बुद्धि से विचारे, उनको सम्बन्धित करे और (शतदायम्) सैंकड़ों लाभप्रद (उक्थ्यं वीरं ददातु) प्रशंसनीय वीर, कार्यकर्त्ता को नियुक्त करे। (२) हे (राके याः ते सुपेशसः सुमतयः) राजसभे ! जो तेरी उत्तम सम्मतियें हैं (याभिः दाशुषे वसूनि ददासि) जिसके द्वारा राजा को नाना धन प्रदान करती है (ताभिः नः सुमनाः सहस्रपोषं रराणासुभगे उपा गहि) हे श्रीमति ! उनसे ही सुचित्त होकर सहस्रगुणा द्रव्य देती हुई प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। राका देवता। जगती छन्दः। द्वयृचं सुक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top