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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    यद्दे॒वा दे॒वान्ह॒विषा॑ऽयज॒न्ताम॑र्त्या॒न्मन॒सा म॑र्त्येन। मदे॑म॒ तत्र॑ पर॒मे व्योम॒न्पश्ये॑म॒ तदुदि॑तौ॒ सूर्य॑स्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दे॒वा: । दे॒वान् । ह॒विषा॑ । अय॑जन्त । अम॑र्त्यान‌् । मन॑सा । अम॑र्त्येन । मदे॑म । तत्र॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । पश्ये॑म । तत् । उत्ऽइ॑तौ । सूर्य॑स्य ॥५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्देवा देवान्हविषाऽयजन्तामर्त्यान्मनसा मर्त्येन। मदेम तत्र परमे व्योमन्पश्येम तदुदितौ सूर्यस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । देवा: । देवान् । हविषा । अयजन्त । अमर्त्यान‌् । मनसा । अमर्त्येन । मदेम । तत्र । परमे । विऽओमन् । पश्येम । तत् । उत्ऽइतौ । सूर्यस्य ॥५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (देवाः) देव, ब्रह्म के जिज्ञासु और ज्ञानी पुरुष (यत्) जिस परम पुरुष में निमग्न होकर (मनसा) मनन शक्ति द्वारा (अमर्त्यान्) सदा रहने वाले (देवान्) दिव्य गुणों को (हविषा) मानस संकल्प या आत्मसामर्थ्य से (अयजन्त) बलवान् करते या अपने में संगत करते या उनको वश में करते हैं (तत्र) उस (परमे) परम, उत्कृष्ट (व्योमन्) विशेष रक्षास्थान, अभय, शरणरूप या आकाशवत् महान् और निःसंग परमब्रह्म में हम (मदेम) आनन्द प्राप्त करें और (सूर्यस्य) सबके प्रेरक और प्रकाशक उस महान् सूर्य के (उदितौ) उदय होने पर (तत्) उस परम प्रकाश का (पश्येम) हम सदा दर्शन करें। साधक की यह वह दशा है जिसमें वह कहता है—“हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥ तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यौसावसौ पुरुषः सोहमस्मि।” इत्यादि। ईश उप०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। आत्मा देवता। त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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