अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ य॒ज्ञं दे॒वा अत॑न्वत। अ॑स्ति॒ नु तस्मा॒दोजी॑यो॒ यद्वि॒हव्ये॑नेजि॒रे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पुरु॑षेण । ह॒विषा॑ । य॒ज्ञम् ।दे॒वा: । अत॑न्वत । अस्ति॑ । नु । तस्मा॑त् । ओजी॑य: । यत् । वि॒ऽहव्ये॑न । ई॒जि॒रे ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरुषेण हविषा यज्ञं देवा अतन्वत। अस्ति नु तस्मादोजीयो यद्विहव्येनेजिरे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पुरुषेण । हविषा । यज्ञम् ।देवा: । अतन्वत । अस्ति । नु । तस्मात् । ओजीय: । यत् । विऽहव्येन । ईजिरे ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - आत्मज्ञान का उपदेश।
भावार्थ -
(यद्) क्योंकि (देवाः) आत्मज्ञान से प्रकाशमान पुरुष (पुरुषेण) इस देह-पुरी में निवास करने वाले आत्मा की (हविषा) हवि देकर अर्थात् परमात्मा के प्रति इसे समर्पित कर (यज्ञं) उस परम पूजनीय परमेश्वर की उपासना (भतन्वत) करते हैं और (यत्) क्योंकि (विहव्येन) विशेष स्तुति, प्रार्थनोपासना द्वारा या बाह्य चरु आदि से रहित केवल समाधि या ज्ञानाभ्यास द्वारा (ईजिरे) उसकी संगति करते हैं. (तस्मात्) इसलिए ही यह अध्यात्म यज्ञ (नु) निश्चय से (ओजीयः अस्ति) सबसे अधिक ओजस्वी बलशाली होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। आत्मा देवता। त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्।
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