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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 57

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
    सूक्त - वामदेवः देवता - सरस्वती छन्दः - जगती सूक्तम् - सरस्वती सूक्त

    स॒प्त क्ष॑रन्ति॒ शिश॑वे म॒रुत्व॑ते पि॒त्रे पु॒त्रासो॒ अप्य॑वीवृतन्नृ॒तानि॑। उ॒भे इद॑स्यो॒भे अ॑स्य राजत उ॒भे य॑तेते उ॒भे अ॑स्य पुष्यतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । क्ष॒र॒न्ति॒ । शिश॑वे । म॒रुत्व॑ते । पि॒त्रे । पु॒त्रास॑: । अपि॑ । अ॒वी॒वृ॒त॒न् । ऋ॒तानि॑ । उ॒भे इति॑ । इत् । अ॒स्य॒ । उ॒भे इति॑ । अ॒स्य॒ । रा॒ज॒त॒: । उ॒भे इति॑ । य॒ते॒ते॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । अ॒स्य॒ । पु॒ष्य॒त॒: ॥५९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवृतन्नृतानि। उभे इदस्योभे अस्य राजत उभे यतेते उभे अस्य पुष्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । क्षरन्ति । शिशवे । मरुत्वते । पित्रे । पुत्रास: । अपि । अवीवृतन् । ऋतानि । उभे इति । इत् । अस्य । उभे इति । अस्य । राजत: । उभे इति । यतेते इति । उभे इति । अस्य । पुष्यत: ॥५९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 57; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (मरुत्वते शिशवे) सात मरुतों से युक्त,सात शिरोगत प्राणों से युक्त (शिशवे) इस शरीर में शयन करने वाले, अथवा अपने आत्मबल से शरीरपिण्ड में प्राणों के सातों मार्गों को बनाने वाले ‘शिशु’ नाम आत्मा के लिये या उसके निमित्त (सप्त) सातों प्राण (क्षरन्ति) गति करते हैं। ठीक ही है। क्योंकि (पित्रे) पिता के लिये (पुत्रासः) उसके लड़के (अपि) भी (ऋतानि) नाना कर्मों को (अवीवृतन्) किया करते हैं। इसी प्रकार वह शिशु आत्मा प्राणों का पालक और उत्पादक होने से पिता है, उस (पित्रे) पिता के लिये ये उससे उत्पन्न प्राण उसके पुत्र हैं और ‘पुरुत्रायते इति पुत्रः’ इस निरुक्त-वचन के अनुसार आत्मा की नाना प्रकार से रक्षा करने से भी ये पुत्र हैं, इस प्रकार ये (पुत्रासः) प्राण रूप पुत्रगण (ऋतानि) सत्य, यथार्थ ज्ञान प्राप्तिरूप व्यापारों को (अपि) भी (अवीवृत) किया करते हैं। और (अस्य) इस आत्मा के (इत्) ही (उभे) ये दोनों (राजतः) सदा प्रकाशमान, जीवित जागृत हैं। (अस्य) इसके ही निमित्त (उभे यतेते) दोनों प्रयत्न करते हैं। और (उभे) दोनों ही (अस्य) इसको ही (पुष्यतः) पुष्ट करते हैं, इसको सबल बनाये रखते हैं। अथवा इस मन्त्र में ३ वार उभे आया है अतः (अस्य इत् उभे) ये दोनों कान उसी के हैं (अस्य उभे राजतः) दोनों आंखें उसी की चमकती हैं (उभे अस्य यतेते) दोनो नाकें उसके लिये गति करती हैं (उभे अस्य पुष्यतः) रसना और मुख दोनों उसको पुष्ट करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। सरस्वती देवता। जागतं छन्दः। द्वयृचं सूक्तम्॥

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