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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्राह्मणम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्म सूक्त
यद्य॒न्तरि॑क्षे॒ यदि॒ वात॒ आस॒ यदि॑ वृ॒क्षेषु॒ यदि॒ वोल॑पेषु। यदश्र॑वन्प॒शव॑ उ॒द्यमा॑नं॒ तद्ब्राह्म॒णं पुन॑र॒स्मानु॒पैतु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । यदि॑ । वाते॑ । आस॑ । यदि॑ । वृ॒क्षेषु॑ । यदि॑ । वा॒ । उल॑पेषु । यत् । अश्र॑वन् । प॒शव॑: । उ॒द्यमा॑नम् । तत् । ब्राह्म॑णम् । पुन॑: । अ॒स्मान् । उ॒प॒ऽऐतु॑ ॥६८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्यन्तरिक्षे यदि वात आस यदि वृक्षेषु यदि वोलपेषु। यदश्रवन्पशव उद्यमानं तद्ब्राह्मणं पुनरस्मानुपैतु ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । अन्तरिक्षे । यदि । वाते । आस । यदि । वृक्षेषु । यदि । वा । उलपेषु । यत् । अश्रवन् । पशव: । उद्यमानम् । तत् । ब्राह्मणम् । पुन: । अस्मान् । उपऽऐतु ॥६८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्मज्ञान के धारण का यत्न।
भावार्थ -
(यदि) जो (उद्यमानम्) अध्ययन के समय में गुरुमुख से बहता हुआ ब्रह्मज्ञान या वेदाध्ययन करते समय उसका तात्विक श्रवण, (अन्तरिक्षे) मेघ के होने पर, (यदि वाते) प्रचण्ड वायु के चलने पर (यदि वृक्षषु) और वृक्षों के भीतर पक्षी आदि के विघ्न करने पर (यदि वा उलपेषु) या तृण, घास, धान के खेत आदि के बीच में इधर उधर के दृश्यों या कीट पतङ्गों के विघ्नों से, और (यत् पशवः= पशुषु) पशुओं के बीच में उनकी चपलता के कारण (अस्रवन्) मेरे कान में आकर भी निकल गया है—विस्मृत हो गया है (तत्) वह (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञान (पुनः) फिर (अस्मान्) हमें (उपैतु) प्राप्त हो।
हमने जिन विघ्नों का निर्देष किया है उनको ही देख कर आपस्तम्ब में वेदाध्ययन और अध्यापन का निम्नलिखित स्थानों और अवसरों पर निषेध किया है। “नाभ्रे, न च्छायावां, न पर्यावृत्ते आदित्ये न,हरितयवान् प्रेक्षमाणो, न ग्राम्यस्य पशोरन्ते, नारण्यस्य, नापामन्ते। (आप० १५। २१८)।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। ब्राह्मणं ब्रह्म वा देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
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