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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 72

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - इन्द्र सूक्त

    श्रा॒तं म॑न्य॒ ऊध॑नि श्रा॒तम॒ग्नौ सुशृ॑तं मन्ये॒ तदृ॒तं नवी॑यः। माध्य॑न्दिनस्य॒ सव॑नस्य द॒ध्नः पिबे॑न्द्र वज्रिन्पुरु॒कृज्जु॑षा॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रा॒तम् । म॒न्ये॒ । ऊध॑नि । श्रा॒तम् । अ॒ग्नौ । सुऽशृ॑तम् । म॒न्ये॒ । तत् । ऋ॒तम्। नवी॑य: । माध्यं॑दिनस्य । सव॑नस्य । द॒ध्न: । पिब॑ । इ॒न्द्र॒ । व॒ज्रि॒न् । पु॒रु॒ऽकृत् । जु॒षा॒ण: ॥७६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रातं मन्य ऊधनि श्रातमग्नौ सुशृतं मन्ये तदृतं नवीयः। माध्यन्दिनस्य सवनस्य दध्नः पिबेन्द्र वज्रिन्पुरुकृज्जुषाणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रातम् । मन्ये । ऊधनि । श्रातम् । अग्नौ । सुऽशृतम् । मन्ये । तत् । ऋतम्। नवीय: । माध्यंदिनस्य । सवनस्य । दध्न: । पिब । इन्द्र । वज्रिन् । पुरुऽकृत् । जुषाण: ॥७६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) इन्द्र ! आत्मन् ! (तत्) उस अलौकिक, (नवीयः) सबसे अधिक प्रशंसनीय, स्तुति के योग्य, अति नवीन, सदा उज्ज्वल (ऋतं) सत्य ज्ञानमय परम ब्रह्मरस को (ऊधनि) ऊर्ध्व, स्वर्गमय परम मोक्षाख्य पद में (श्रातं) सुपरिपक्व रूप से ही (मन्ये) मनन करता हूं, जानता हूं। और (अग्नौ) फिर अग्नि, ज्ञानमय गुरु के समीप वास करने पर भी (श्रातं) तपस्या द्वारा, तपरूप से उसी को पकाया, उसी का अभ्यास किया है। और इस प्रकार अब समाधियोग होने पर उसको (सु-शृतं मन्ये) उत्तम रीति से परिपक्व हुआ जानता हूं। (माध्यन्दिनस्य) दिन के मध्य भाग मध्याह्न काल, ब्रह्म प्रकाश के हृदयाकाश में अति उज्ज्वलरूप में प्रकाशमान होने के (सवनस्य) सवन काल में उत्पन्न (दध्नः) ध्यानाभ्यास के रसका (पिब) पान कर। हे (वज्रिन्) ज्ञानवज्र के धारण करने हारे आत्मन् ! तू (जुषाणः) उसका सेवन करता हुआ उस रसका प्रेमी होकर (पुरु-कृत्) नाना इन्द्रिगण को अपने वश करके ध्यानाभ्यास रसका पान कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ अनुष्टुप्, २, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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