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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
श्रा॒तं ह॒विरो ष्वि॑न्द्र॒ प्र या॑हि ज॒गाम॒ सूरो॒ अध्व॑नो॒ वि मध्य॑म्। परि॑ त्वासते नि॒धिभिः॒ सखा॑यः कुल॒पा न व्रा॑जप॒त चर॑न्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒तम् । ह॒वि: । ओ इति॑ । सु । इ॒न्द्र॒ । प्र । या॒हि॒ । ज॒गाम॑ । सूर॑: । अध्व॑न: । वि । मध्य॑म् । परि॑ । त्वा॒ । आ॒स॒ते॒ । नि॒धिऽभि॑: । सखा॑य: । कु॒ल॒ऽपा: । न । व्रा॒ज॒ऽप॒तिम् । चर॑न्तम् ॥७५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रातं हविरो ष्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो वि मध्यम्। परि त्वासते निधिभिः सखायः कुलपा न व्राजपत चरन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रातम् । हवि: । ओ इति । सु । इन्द्र । प्र । याहि । जगाम । सूर: । अध्वन: । वि । मध्यम् । परि । त्वा । आसते । निधिऽभि: । सखाय: । कुलऽपा: । न । व्राजऽपतिम् । चरन्तम् ॥७५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
विषय - योग द्वारा प्रतिमा का तप।
भावार्थ -
हे इन्द्र ! आत्मन् ! प्रभो ! (श्रातं हविः) आदान योग्य वह ब्रह्म समाधि रस परिपक्व हो गया है। (उ प्र याहि) और समक्ष आओ, प्रकट होओ। वही (सूरः) सब का प्रेरक आत्मा (अध्वनः) हृदय आकाश के मध्यभाग में (वि) विशेष रूप से (जगाम) आ गया है। हे आत्मन् ! (त्वा) तेरे (परि) चारों ओर (सखायः) तेरे मित्र प्राण या समाहित मुक्तजन (निधिभिः) नाना प्रकार की सिद्धियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, शक्तिरूप रत्नों से भरे स्वजनों सहित अथवा विशेष धारणाओं सहित (आसते) तेरी उपासना उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार (कुलपाः न) कुल के पालक पुत्र या शिष्य गण (व्राज-पतिं) गृह के स्वामी पिता या आचार्य का (चरन्तं) विचरण करते समय या भोजन करते समय उसके चारों ओर रहते हैं।
यज्ञपक्ष में—हवि अन्न पक गया है, हे इन्द्र ! आगे आओ, सूर्य आकाश के मध्य भाग में आगया है, तेरे मित्र (ऋत्विण्-गण) अपने मन्त्रस्तोमों सहित तेरी उपासना उसी प्रकार करते हैं जैसे पुत्रगण कुल-पिता की।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ अनुष्टुप्, २, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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