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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अपचिद् भैषज्य्म् छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त

    आ सु॒स्रसः॑ सु॒स्रसो॒ अस॑तीभ्यो॒ अस॑त्तराः। सेहो॑रर॒सत॑रा लव॒णाद्विक्ले॑दीयसीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सु॒ऽस्रस॑: । सु॒ऽस्रस॑: । अस॑तीभ्य: । अस॑त्ऽतरा: । सेहो॑: । अ॒र॒सऽत॑रा: । ल॒व॒णात् । विऽक्ले॑दीयसी: ॥८०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सुस्रसः सुस्रसो असतीभ्यो असत्तराः। सेहोररसतरा लवणाद्विक्लेदीयसीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सुऽस्रस: । सुऽस्रस: । असतीभ्य: । असत्ऽतरा: । सेहो: । अरसऽतरा: । लवणात् । विऽक्लेदीयसी: ॥८०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (असतीभ्यः) बुरी से भी, (असत्-तराः) बुरी, बिगड़ी हुई, अपची या गण्डमाला की फोड़ियां यदि (सु-स्रसः) अच्छी प्रकार बह रही हैं तो (आ सु-स्त्रसः) वे शीघ्र ही सुगम रीति से विनष्ट हो जाती हैं। और यदि (सेहोः) वे शुष्क पदार्थ से भी अधिक (अरस-तरा) रसहीन, सुखी हैं तो वे (लवणात्) नमक छिड़ककर मलने से (वि-क्लेदीयसीः) विशेष रूप से जल छोड़ने लग जाती हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अपचित-भिषग् देवता। १ विराड् अनुष्टुप्। ३, ४ अनुष्टुप्। २ परा उष्णिक्। ५ भुरिग् अनुष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। षडर्चं सूक्तम्॥

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