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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 83

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त

    उदु॑त्त॒मं व॑रुण॒ पाश॑म॒स्मदवा॑ध॒मं वि म॑ध्य॒मं श्र॑थाय। अधा॑ व॒यमा॑दित्य व्र॒ते त॒वाना॑गसो॒ अदि॑तये स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । उ॒त्ऽत॒मम् । व॒रु॒ण॒ । पाश॑म् । अ॒स्मत् । अव॑ । अ॒ध॒मम् । वि । म॒ध्य॒मम् । श्र॒य॒थ॒ । अध॑ । व॒यम् । आ॒दि॒त्य॒ । व्र॒ते । तव॑ । अना॑गस: । अदि॑तये । स्या॒म॒ ॥८८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अधा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । उत्ऽतमम् । वरुण । पाशम् । अस्मत् । अव । अधमम् । वि । मध्यमम् । श्रयथ । अध । वयम् । आदित्य । व्रते । तव । अनागस: । अदितये । स्याम ॥८८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! (उत्तमं) उत्तम, उत्कृष्ट, दृढ़ (पाशम्) फांसे को (उत् श्रथाय) मुक्त कर, (अधमं पाशम् अव श्रथाय) अधम निकृष्ट बन्धन को भी दूर कर, अथवा शरीर, मन, वाणी तीनों द्वारा प्राप्त तीनों प्रकार के बंधनों से हमें मुक्त कर। अथवा शरीर के ऊपर के भाग के बंधन को, मध्य के बंधन को और अधोभाग के बंधन को भी दूर कर। (अध) और (वयम्) हम हे (आदित्य) सूर्य के समान तेजस्विन् ! (तव) तेरे उपदिष्ट (व्रते) सत्य आचरण आदि वैदिक नियमों में विचरते हुए (अदितये) तेरी अखण्ड नियमव्यवस्था के निमित्त, अथवा तेरे अखण्ड सुख प्राप्त करने के लिये (अनागसः) निष्पाप, निरपराध (स्याम) रहें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनः शेप ऋषिः। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्। २ पथ्यापंक्तिः, ३ त्रिष्टुप्, ४ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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