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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
सूक्त - शुनःशेपः
देवता - वरुणः
छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
प्रास्मत्पाशा॑न्वरुण मुञ्च॒ सर्वा॒न्य उ॑त्त॒मा अ॑ध॒मा वा॑रु॒णा ये। दुः॒ष्वप्न्यं॑ दुरि॒तं निः ष्वा॒स्मदथ॑ गच्छेम सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । व॒रु॒ण॒ । मु॒ञ्च॒ । सर्वा॑न् । ये । उ॒त्ऽत॒मा: । अ॒ध॒मा: । वा॒रु॒णा: । ये । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । दु॒:ऽइ॒तम् । नि: । स्व॒ । अ॒स्मत् । अथ॑ । ग॒च्छे॒म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥८८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रास्मत्पाशान्वरुण मुञ्च सर्वान्य उत्तमा अधमा वारुणा ये। दुःष्वप्न्यं दुरितं निः ष्वास्मदथ गच्छेम सुकृतस्य लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । अस्मत् । पाशान् । वरुण । मुञ्च । सर्वान् । ये । उत्ऽतमा: । अधमा: । वारुणा: । ये । दु:ऽस्वप्न्यम् । दु:ऽइतम् । नि: । स्व । अस्मत् । अथ । गच्छेम । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥८८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
विषय - बन्धन-मोचन की प्रार्थना॥
भावार्थ -
हे (वरुण) सर्वपापनिवारक प्रभो ! (अस्मत्) हमसे (ये) जो (उत्तमाः) ऊंचे ऊंचे बड़े, कठोर कठोर (अधमाः) नीचे और (ये वारुणाः) जो वरुण, परमात्मा के दैवी बन्धन हैं उन (सर्वान् पाशान्) समस्त बंधनों को (प्र मुञ्च) भली प्रकार छुड़ा,दूर कर। और (दुरितं) दुष्टाचरण और (दुःस्वप्न्यं) मन के उस दुष्ट संस्कार को जो हमारे स्वप्न काल में बुरे रूप में प्रकट होता हो (अस्मत्) हमसे (निः स्व=निः सुव) दूर कर, (अथ) और हम लोग (सुकृतस्य) पुण्य चरित्र से प्राप्त होने योग्य (लोकम्) लोक या जन्म को (गच्छेम) प्राप्त हों।
टिप्पणी -
‘दुरित दुःस्वप्न्य’ के दूर होने की प्रार्थना से ऐहिक दुष्टाचरण और शरीर के छोड़ने के अनन्तर आत्मा की दुःखमय स्वप्नावस्था के समान जो दशा है उससे भी मुक्ति पाने की प्रार्थना की गई है। ‘यथा स्वप्नलोके तथा पितृलोके’ इस उपनिषत् सिद्धान्त के अनुसार शरीर से पृथक् जीव की दशा स्वप्न-काल की स्थिति के समान होती है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनः शेप ऋषिः। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्। २ पथ्यापंक्तिः, ३ त्रिष्टुप्, ४ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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