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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शुनःशेपः देवता - वरुणः छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
    48

    प्रास्मत्पाशा॑न्वरुण मुञ्च॒ सर्वा॒न्य उ॑त्त॒मा अ॑ध॒मा वा॑रु॒णा ये। दुः॒ष्वप्न्यं॑ दुरि॒तं निः ष्वा॒स्मदथ॑ गच्छेम सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । व॒रु॒ण॒ । मु॒ञ्च॒ । सर्वा॑न् । ये । उ॒त्ऽत॒मा: । अ॒ध॒मा: । वा॒रु॒णा: । ये । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । दु॒:ऽइ॒तम् । नि: । स्व॒ । अ॒स्मत् । अथ॑ । ग॒च्छे॒म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥८८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रास्मत्पाशान्वरुण मुञ्च सर्वान्य उत्तमा अधमा वारुणा ये। दुःष्वप्न्यं दुरितं निः ष्वास्मदथ गच्छेम सुकृतस्य लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अस्मत् । पाशान् । वरुण । मुञ्च । सर्वान् । ये । उत्ऽतमा: । अधमा: । वारुणा: । ये । दु:ऽस्वप्न्यम् । दु:ऽइतम् । नि: । स्व । अस्मत् । अथ । गच्छेम । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥८८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के नियम का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुण) हे दुःखनिवारक परमेश्वर ! (अस्मत्) हमसे (सर्वान्) सब (पाशान्) फन्दों को (प्र मुञ्च) खोल दे, (ये) जो (उत्तमाः) ऊँचे और (ये) जो (अधमाः) नीचे [फन्दे] (वारुणः) दोषनिवारक वरुण परमेश्वर से आये हैं। (दुःष्वप्न्यम्) नींद में उठे कुविचार और (दुरितम्) विघ्न को (अस्मत्) हमसे (निः स्व) निकाल दे, (अथ) फिर (सुकृतस्य) धर्म के (लोकम्) समाज में (गच्छेम) हम जावें ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य भूत भविष्यत् क्लेशों का विचार करके दुष्कर्मों से बचते हैं, वे धर्मात्माओं में सत्कार पाते हैं ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है। अ० ६।१२१।१ ॥

    टिप्पणी

    ४−(प्र) प्रकर्षेण (वरुण) हे दुःखनिवारक परमेश्वर (मुञ्च) मोचय। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ६।१२१।१ ॥

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    विषय

    'दुःष्वन्य-दुरित दूरीकरण

    पदार्थ

    १. हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! (अस्मत्) = हमसे (सर्वान् पाशान् प्रमुञ्ब) = सब पाशों को मुक्त कीजिए। (ये) = जो पाश (उत्तमाः) = उत्तम, अर्थात् सत्त्वगुण के सुखरूप पाश हैं, (अधमा:) = जो तमोगुण के प्रमाद आदि पाश हैं, (ये वारुणा:) = जो हमें धर्म के मार्ग से वारित करके छल छिद्र से धन प्रास करने के लिए प्रेरित करते हैं, २. (दुःष्वयम्) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत (दुरितम्) = दुराचरण को नि:व-[निस्सुव] हमसे निर्गत कीजिए। (अथ) = अब पाश-विमोचन होने पर हम (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्य के लोक को (गच्छेम) = प्राप्त हों, सदा पुण्य कार्यों को ही करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे सब पाशों को पृथक् करें। हम दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत दुराचरणों से पृथक् होकर सुकृत कर्मों के लोक में गतिवाले हों।

    सब बन्धनों से ऊपर उठकर अपने को तपस्या की अग्नि में परिपक्व करनेवाला यह व्यक्ति 'भृगु' बनता है और यही अगले सूक्त में इसप्रकार प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    (वरुण) हे वरणीय परमेश्वर ! (अस्मत्) हम से (सर्वान् पाशान्) सब पाशों को (प्रमुञ्च) छुड़ा दे, (ये) जो कि (उत्तमाः अधमा) उत्तम और अधम हैं, (ये वारुणाः) और जो वरणीय आप परमेश्वर द्वारा [कर्मानुसार] डाले गये हैं। (दुस्वप्न्यम्) बुरे स्वप्नों में उत्पन्न (दुरितम्) पाप को (अस्मत् निःष्व) हम से निकाल दे, (अथ) तत्पश्चात (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मियों के लोक१ में (गच्छेम्) हम जाएं। [निःष्व= निः, षू प्रेरणे लोट् लकार। "दुःष्वप्न्यम्" द्वारा मानसिक भोगरूपी पाश का कथन हुआ है]।

    टिप्पणी

    [१. सुकर्मियों के समाज में जाने के योग्य हम हो सकें। अथवा "नाकलोक" में जाने के अधिकारी हो सकें (यजु० ३१।१६)]

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    विषय

    बन्धन-मोचन की प्रार्थना॥

    भावार्थ

    हे (वरुण) सर्वपापनिवारक प्रभो ! (अस्मत्) हमसे (ये) जो (उत्तमाः) ऊंचे ऊंचे बड़े, कठोर कठोर (अधमाः) नीचे और (ये वारुणाः) जो वरुण, परमात्मा के दैवी बन्धन हैं उन (सर्वान् पाशान्) समस्त बंधनों को (प्र मुञ्च) भली प्रकार छुड़ा,दूर कर। और (दुरितं) दुष्टाचरण और (दुःस्वप्न्यं) मन के उस दुष्ट संस्कार को जो हमारे स्वप्न काल में बुरे रूप में प्रकट होता हो (अस्मत्) हमसे (निः स्व=निः सुव) दूर कर, (अथ) और हम लोग (सुकृतस्य) पुण्य चरित्र से प्राप्त होने योग्य (लोकम्) लोक या जन्म को (गच्छेम) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    ‘दुरित दुःस्वप्न्य’ के दूर होने की प्रार्थना से ऐहिक दुष्टाचरण और शरीर के छोड़ने के अनन्तर आत्मा की दुःखमय स्वप्नावस्था के समान जो दशा है उससे भी मुक्ति पाने की प्रार्थना की गई है। ‘यथा स्वप्नलोके तथा पितृलोके’ इस उपनिषत् सिद्धान्त के अनुसार शरीर से पृथक् जीव की दशा स्वप्न-काल की स्थिति के समान होती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनः शेप ऋषिः। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्। २ पथ्यापंक्तिः, ३ त्रिष्टुप्, ४ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Bondage

    Meaning

    O Varuna, release all chains of bondage from us, highest as well as lowest, all that have come by the laws of cosmic justice. Remove all evil thoughts and dreams from us so that we may rise to the ultimate state of holiness and divine happiness in freedom.

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    Translation

    Release from us, O venerable Lord (Varuna) all bonds: or fetters, that are uppermost, lowest-these are yours, O varuna. Remove from us evil-dreaming. (Remove) all our difficulty. Then we shall be able to proceed to the world of those persons, who have done well.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.88.4AS PER THE BOOK

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    Translation

    O All-adorable Lord! please set us free from all the wordly snares that are of upper category or of lower category and that bind us. Drive from us the evils committed in dream and drive off bad acts from us. May we pass into the world of virtue, the salvation.

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    Translation

    O God, the Averter of sins, free us from all snares that bind us, natural bonds, the upper and the lower. Drive from us evil dream, drive off misfortune then let us pass into the world of virtue.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(प्र) प्रकर्षेण (वरुण) हे दुःखनिवारक परमेश्वर (मुञ्च) मोचय। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ६।१२१।१ ॥

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