अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्ची बृहती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तस्मा॑त्पि॒तृभ्यो॑ मा॒स्युप॑मास्यं ददति॒ प्र पि॑तृ॒याणं॒ पन्थां॑ जानाति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त् । पि॒तृऽभ्य॑: । मा॒सि । उप॑ऽमास्यम् । द॒द॒ति॒ । प्र । पि॒तृ॒ऽयान॑म् । पन्था॑म् । जा॒ना॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥ १२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मात्पितृभ्यो मास्युपमास्यं ददति प्र पितृयाणं पन्थां जानाति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात् । पितृऽभ्य: । मासि । उपऽमास्यम् । ददति । प्र । पितृऽयानम् । पन्थाम् । जानाति । य: । एवम् । वेद ॥ १२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 3;
मन्त्र » 4
विषय - विराड् के ४ रूप, वनस्पति, पितृ, देव और मनुष्यों के बीच में क्रम से रस, वेतन, तेज और अन्न।
भावार्थ -
(सा उत् अक्रामत्) वह विराट् उठी। (सा पितॄन् आ आ अगच्छत्) वह ‘पितृ’ लोगों के पास आई। (तां पितरः अघ्नत) उसके साथ पितृ लोग रहे। (सा मासि सम् अभवत्) वह मास भर उनके साथ रही॥ ३॥ (तस्मात्) इसलिये (पितृभ्यः) पितृ लोगों को (मासि) एक मास पर (उप-मास्यम्) मासिक वृत्ति या वेतन (ददति) देते हैं। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के रहस्य को (जानाति) जान लेता है वह (पितृयाणं पन्थाम्) पितृयाण मार्ग को (प्र जानाति) भली प्रकार जान लेता है।
प्रजा के शासक और घर के बूढ़े व्यवस्थापक लोग ‘पितृ’ शब्द से कहे जाते हैं। उनको प्रति मास वेतन और मासिक व्यय देना चाहिये। वही उनकी ‘स्वधा’ अर्थात् शरीर के धारणोपयोगी भेंट है। और यही उनका पितृत्व है कि वे पिता के समान आप शरीर-पोषण मात्र लेकर प्रजा को पिता के समान पालते हैं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ चतुष्पदा विराड् अनुष्टुपू। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३,५,७ चतुष्पदः प्राजापत्याः पंक्तयः। ४, ६, ८ आर्चीबृहती।
इस भाष्य को एडिट करें