अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्ची बृहती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तस्मा॑द्दे॒वेभ्यो॑ऽर्धमा॒से वष॑ट्कुर्वन्ति॒ प्र दे॑व॒यानं॒ पन्थां॑ जानाति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त् । दे॒वेभ्य॑: । अ॒र्ध॒ऽमा॒से । वष॑ट् । कु॒र्व॒न्ति॒ । प्र । दे॒व॒ऽयान॑म् । पन्था॑म् । जा॒ना॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्देवेभ्योऽर्धमासे वषट्कुर्वन्ति प्र देवयानं पन्थां जानाति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात् । देवेभ्य: । अर्धऽमासे । वषट् । कुर्वन्ति । प्र । देवऽयानम् । पन्थाम् । जानाति । य: । एवम् । वेद॥१२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 3;
मन्त्र » 6
विषय - विराड् के ४ रूप, वनस्पति, पितृ, देव और मनुष्यों के बीच में क्रम से रस, वेतन, तेज और अन्न।
भावार्थ -
(सा उद् अक्रामत्) वह विराट् ऊपर उठी, (सा देवानु,आ अगच्छत्) वह देव, विद्वानों के पास प्राप्त हुई। (तां देवाः अघ्नत) उसको देवगण प्राप्त हुए। (सा अर्धमासे सम् अभवत्) वह आधे मास भर उनके संग रही। (तस्मात्) इसलिये (देवेभ्यः अर्धमासे वषट् कुर्वन्ति) देवगण विद्वान् लोगों को आधे मास पर प्रति पक्ष, पर्व के दिन ‘वषट्’ सत्कार सहित पालन रूप से अन्न आदि दिया जाता है। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है वह (देवयानं पन्थां प्रजानाति) देवयान मार्ग को भली प्रकार जान लेता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ चतुष्पदा विराड् अनुष्टुपू। २ आर्ची त्रिष्टुप्। ३,५,७ चतुष्पदः प्राजापत्याः पंक्तयः। ४, ६, ८ आर्चीबृहती।
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