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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - द्विपदार्च्युष्णिक् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    वि॒षमे॒वास्याप्रि॑यं॒ भ्रातृ॑व्यमनु॒विषि॑च्यते॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षम् । ए॒व । अ॒स्य॒ । अप्रि॑यम् । भ्रातृ॑व्यम् । अ॒नु॒ऽविसि॑च्यते । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषमेवास्याप्रियं भ्रातृव्यमनुविषिच्यते य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषम् । एव । अस्य । अप्रियम् । भ्रातृव्यम् । अनुऽविसिच्यते । य: । एवम् । वेद ॥१५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 6; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (तत्) इसलिये (एवं विदुषे) इस प्रकार के पूर्व सूक्त में कहे विष-दोहन विद्या के रहस्य को जानने वाले (यस्मै) जिस विद्वान् के प्रति सर्प आदि जन्तु (अलाबुना) अपनी विष की थैली में से विष (अभिषिञ्चेत्) फेंके तो वह विद्वान् (प्रत्याहन्यान्) उसका प्रतिकार करने में समर्थ होता है और यदि (न च प्रत्याहन्यात्) वह उसको मारना न चाहे तो (मनसा) मानस बल, संकल्प बल से ही (त्वा प्रति आहन्मि) ‘तेरा मैं प्रतिघात करता हूँ’ (इति) ऐसी प्रबल भावना से ही वह (प्रति आहन्यात्) उसके हानिकारक प्रभाव का निराकरण करे। (यत्) जब (प्रति आहन्ति) वह प्रतिघात करता है (तत्) तब वह (विषम् एव प्रति आहन्ति) विष का ही प्रतिघात किया करता है, विष के घातक प्रभाव को ही नष्ट किया करता है। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है (विषम् एव अस्य अप्रियम् भ्रातृव्यम् अनु विषिच्यते) विष ही उसके अप्रिय शत्रु पर जा पड़ता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ विराड् गायत्री। २ साम्नी त्रिष्टुप्। ३ प्राजापत्या अनुष्टुप्। ४ आर्ची उष्णिक् अनुक्तपदा द्विपदा। चतुर्ऋचं पर्यायसूक्तम्॥

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