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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - त्रिपदार्ची त्रिष्टुप् सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    स॑र्व॒दा वा ए॒ष यु॒क्तग्रा॑वा॒र्द्रप॑वित्रो॒ वित॑ताध्वर॒ आहृ॑तयज्ञक्रतु॒र्य उ॑प॒हर॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒र्व॒दा । वै । ए॒ष: । यु॒क्तऽग्रा॑वा । आ॒र्द्रऽप॑वित्र: । वित॑तऽअध्वर: । आहृ॑तऽयज्ञक्रतु: । य: । उ॒प॒ऽहर॑ति ॥७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वदा वा एष युक्तग्रावार्द्रपवित्रो वितताध्वर आहृतयज्ञक्रतुर्य उपहरति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वदा । वै । एष: । युक्तऽग्रावा । आर्द्रऽपवित्र: । विततऽअध्वर: । आहृतऽयज्ञक्रतु: । य: । उपऽहरति ॥७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 2; मन्त्र » 10

    भावार्थ -
    (यः उपहरति) जो अतिथियों की सेवा करता रहता है और उनका सत्कार करता रहता है (एषः वै) उसके (युक्त ग्रावा) सोम रस निकालने वाले पत्थर (सर्वदा) सदा जुटे रहते हैं, (आर्द्रपवित्रः) और उसके घर सोम रस नित्य ‘दशा पवित्र’ नामक वस्त्र पर छनता रहता है, (वितताअध्वरः) उसका यह अतिथि यज्ञ नित्य चला करता है और (आहृत-यज्ञक्रतुः) वह सदा यज्ञ कर्म के फल को प्राप्त करता रहता है॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिर्विद्या वा देवता। विराड् पुरस्ताद् बृहती। २, १२ साम्नी त्रिष्टुभौ। ३ आसुरी अनुष्टुप्। ४ साम्नी उष्णिक्। ५ साम्नी बृहती। ११ साम्नी बृहती भुरिक्। ६ आर्ची अनुष्टुप्। ७ त्रिपात् स्वराड् अनुष्टुप्। ९ साम्नी अनुष्टुप्। १० आर्ची त्रिष्टुप्। १३ आर्ची पंक्तिः। त्रयोदशर्चं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्।

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