अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
अ॒स्य वा॒मस्य॑ पलि॒तस्य॒ होतु॒स्तस्य॒ भ्राता॑ मध्य॒मो अ॒स्त्यश्नः॑। तृ॒तीयो॒ भ्राता॑ घृ॒तपृ॑ष्ठो अ॒स्यात्रा॑पश्यं वि॒श्पतिं॑ स॒प्तपु॑त्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । वा॒मस्य॑ । प॒लि॒तस्य॑ । होतु॑: । तस्य॑ । भ्राता॑ । म॒ध्य॒म: । अ॒स्ति॒ । अश्न॑: । तृ॒तीय॑: । भ्राता॑ । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । अ॒स्य॒ । अत्र॑ । अ॒प॒श्य॒म् । वि॒श्पति॑म् । स॒प्तऽपु॑त्रम् ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः। तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । वामस्य । पलितस्य । होतु: । तस्य । भ्राता । मध्यम: । अस्ति । अश्न: । तृतीय: । भ्राता । घृतऽपृष्ठ: । अस्य । अत्र । अपश्यम् । विश्पतिम् । सप्तऽपुत्रम् ॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
विषय - विश्वस्रष्टा परमेश्वर का निरूपण।
भावार्थ -
(अस्य) इस (वामस्य) सेवन करने योग्य, सुन्दर, वरणीय (पलितस्य) समस्त जगत् के पालक, (होतुः) स्वयं अपने में उसको ले लेने वाले, प्रलयकारी, (तस्य) उस महान् परमेश्वर का (भ्राता) भ्राता भरण पोषण समर्थ स्वरूप (मध्यमः) सब सृष्टि के भी भीतर वर्त्तमान, (अश्नः) सर्वव्यापक (अस्ति) है। और (अस्य) इस परमेश्वर का (तृतीयः) सबसे उत्कृष्ट, तीर्णतम (भ्राता) सर्वधारक स्वरूप (घृत-पृष्ठः) अत्यन्त प्रदीप्त, तेजोमय है (अत्र) इस परमरूप में ही मैं क्रान्तदर्शी योगी (सप्त-पुत्रम्) सर्पणशील ‘पुम्’ अर्थात् जीवों और लोगों के त्राण करने वाले (विश्पतिं) सब प्रजाओं के पालक परमेश्वर को (अपश्यम्) साक्षात् करता हूं।
अध्यात्म में—(अस्य पलितस्य होतुः वामस्य तस्य मध्यमः भ्राता अश्नः अस्ति) इस सर्वव्यापक, परम पुराण, परम वरणीय आत्मा का मध्यम भ्राता ‘अश्न’ कर्मफल भोक्ता जीव है। (अस्य तृतीयः भ्राता घृत-पृष्ठः) इसका तीसरा भाई ‘घृतपृष्ठ’ जलमय, आपोमय प्रकृति तत्व है, (अत्र) वहां ही मैं (सप्त पुत्रम् विश्पतिं अपश्यम्) सर्पणशील लोकों के प्रजापति को साक्षात् करता हूं।
आदित्यपक्ष में— इस सुन्दर पुण्य, सर्वादाता सूर्य का मध्यम भ्राता (अश्नः) सर्वव्यापक वायु है। उसका तृतीय भ्राता ‘घृतपृष्ठ’ जल को पीठ पर लिए यह मेघ या भूलोक है। यहां ‘सप्तपुत्रम्’ सात मरुद्गणों से युक्त, सप्तरश्मियों से युक्त या सात ग्रहों या लोकों से युक्त (विश्पतिम्) प्रजापति के समान सूर्य को देखता हूं।
भौतिक पक्ष में—इस प्रशंसनीय वृद्ध ज्ञानी के भरण पोषण में समर्थ, (मध्यमः) पृथिवी आदि लोकों में प्रसिद्ध, (अश्नः) सब पदार्थों को भस्म कर खा जाने वाला अग्नि विद्यमान है, उसका तीसरा भ्राता मानो (घृत-पृष्ठः) जल की पीठ पर लिए विद्युत् रुप अग्नि है। और (अपश्यं सप्तपुत्रं विश्पतिं) सात प्रकार के तत्वों से उत्पन्न प्रजा के पालक सूर्य को देखता हूं। [ महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदभाष्य के अनुसार ]
टिप्पणी -
ऋग्वेदऽस्य सूक्तस्य दीर्घतया ऋषिः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्माऋषिः आदित्यो देवता। अध्यात्मकं अस्यवामीयं सूक्तम्। १, ११, १३, १५, १७, १९, २२ त्रिष्टुभः, १४, १६, १८ जगत्यः, द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
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