ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
अ॒स्य श्रि॒ये स॑मिधा॒नस्य॒ वृष्णो॒ वसो॒रनी॑कं॒ दम॒ आ रु॑रोच। रुश॒द्वसा॑नः सु॒दृशी॑करूपः क्षि॒तिर्न रा॒या पु॑रु॒वारो॑ अद्यौत् ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । श्रि॒ये । स॒म्ऽइ॒धा॒नस्य॑ । वृष्णः॑ । वसोः॑ । अनी॑कम् । दमे॑ । आ । रु॒रो॒च॒ । रुश॑त् । वसा॑नः । सु॒दृशी॑कऽरूपः । क्षि॒तिः । न । रा॒या । पु॒रु॒ऽवारः॑ । अ॒द्यौ॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य श्रिये समिधानस्य वृष्णो वसोरनीकं दम आ रुरोच। रुशद्वसानः सुदृशीकरूपः क्षितिर्न राया पुरुवारो अद्यौत् ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। श्रिये। सम्ऽइधानस्य। वृष्णः। वसोः। अनीकम्। दमे। आ। रुरोच। रुशत्। वसानः। सुदृशीकऽरूपः। क्षितिः। न। राया। पुरुऽवारः। अद्यौत्॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
विषय - तेजस्वी राजा ।
भावार्थ -
(अस्य) इस (समिधानस्य) अग्नि वा सूर्यवत् देदीप्यमान (वृष्णः) प्रबन्ध करने हारे वा मेघ के तुल्य सुखों के वर्षक (वसोः) प्रजा को बसाने वाले राजा की (श्रिये) लक्ष्मी की वृद्धि के लिये ही उसके (दमे) गृहवत् राष्ट्र या दमन में (अनीकं) बड़ा सैन्यमय तेज (आ रुरोच) सर्वत्र प्रकाशित हो । वह (रुशत्) तेजस्वी होकर (वसानः) राष्ट्र में रहता हुआ (सुदृशीकरूपः) उत्तम दर्शनीय शरीर होकर (राया पुरुवारः) धनैश्वर्य से बहुतों द्वारा वरण करने योग्य, बहुत से शत्रुओं का वारक होकर (क्षितिः न) भूमि या राष्ट्र के समान ही गंभीर विस्तृत वा शत्रुओं का क्षयकारी होकर (अद्यौत्) प्रकाशित हो । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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