ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 149/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒यं स होता॒ यो द्वि॒जन्मा॒ विश्वा॑ द॒धे वार्या॑णि श्रव॒स्या। मर्तो॒ यो अ॑स्मै सु॒तुको॑ द॒दाश॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । सः । होता॑ । यः । द्वि॒ऽजन्मा॑ । विश्वा॑ । द॒धे । वार्या॑णि । श्र॒व॒स्या । मर्तः॑ । यः । अ॒स्मै॒ । सु॒ऽतुकः॑ । द॒दाश॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स होता यो द्विजन्मा विश्वा दधे वार्याणि श्रवस्या। मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश ॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। सः। होता। यः। द्विऽजन्मा। विश्वा। दधे। वार्याणि। श्रवस्या। मर्तः। यः। अस्मै। सुऽतुकः। ददाश ॥ १.१४९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 149; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यः सुतुको मर्त्तोऽस्मै विद्यां ददाश यो द्विजन्मा होता विश्वां श्रवस्या वार्य्याणि दधे सोऽयं पुण्यवान् भवति ॥ ५ ॥
पदार्थः
(अयम्) (सः) (होता) ग्रहीता (यः) (द्विजन्मा) गर्भविद्याशिक्षाभ्यां जातः (विश्वा) सर्वाणि (दधे) धत्ते (वार्याणि) वर्त्तुं स्वीकर्त्तुमर्हाणि (श्रवस्या) श्रवसि श्रवणे भवानि (मर्त्तः) मनुष्यः (यः) (अस्मै) विद्यार्थिने (सुतुकः) सुष्ठुविद्यावृद्धः (ददाश) ददाति ॥ ५ ॥
भावार्थः
यस्य विद्यासुशिक्षायुक्तयोर्मातापित्रोः सकाशादेकं जन्माऽऽचार्यविद्याभ्यां द्वितीयं च स द्विजः सन् विद्वान् स्यात् ॥ ५ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्वदग्न्यादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इत्येकोनपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो (सुतुकः) सुन्दर विद्या से बड़ा उन्नति को प्राप्त हुआ (मर्त्तः) मनुष्य (अस्मै) इस विद्यार्थी के लिये विद्या को (ददाश) देता है वा (यः) जो (द्विजन्मा) गर्भ और विद्या शिक्षा से उत्पन्न हुआ (होता) उत्तम गुणग्राही (विश्वा) समस्त (श्रवस्या) सुनने में प्रसिद्ध हुए (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य विषयों को (दधे) धारण करता है (सः) (अयम्) सो यह पुण्यवान् होता है ॥ ५ ॥
भावार्थ
जिसका विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त माता-पिताओं से एक जन्म और दूसरा जन्म आचार्य और विद्या से हो, वह द्विज होता हुआ विद्वान् हो ॥ ५ ॥इस सूक्त में विद्वान् और अग्न्यादि पदार्थों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ उनचासवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वरणीय धनों व ज्ञानों के दाता प्रभु
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार उपासक जब हृदय में प्रभु से मेलवाला होता है तब कह उठता है कि (अयं सः होता) = ये प्रभु वे हैं जो हमारे लिए सब कुछ दे देनेवाले हैं। (यः द्विजन्मा) = जो श्रद्धा व ज्ञान इन दोनों के समन्वय से हृदय में आविर्भूत होनेवाले हैं। (विश्वा) = सम्पूर्ण (वार्याणि) = वरणीय धनों को तथा (श्रवस्या) = श्रवण से प्राप्त होनेवाले ज्ञानों को (दधे) = हममें धारण करते हैं । प्रभु ही सब आवश्यक धनों को देते हैं और हृदयस्थ होकर प्रेरणा के द्वारा वे प्रभु ही ज्ञान भी प्राप्त कराते हैं । २. (यः मर्तः) = जो भी मनुष्य (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (ददाश) = अपने-आपको अर्पित करता है, (सुतुकः) = वह उत्तम सन्तानवाला होता है। जिस घर में प्रभु की उपासना चलती है, उस घर का वातावरण इतना सुन्दर होता है कि वहाँ सन्तानों का उत्तम ही निर्माण होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही सब वरणीय धनों व ज्ञानों को देते हैं। जिस घर में प्रभु का उपासन चलता है, वहाँ सन्तानें भी उत्तम होती हैं ।
विषय
द्विजन्मा अग्निवत् द्विजन्मा विद्वान् का वर्णन ।
भावार्थ
( अयं ) यह ( सः ) वही ( होता ) सबके ज्ञानेश्वर्य का देने और लेने वाला विद्वान् पुरुष है ( यः ) जो ( द्विजन्मा ) माता पिता के द्वारा प्राप्त प्रथम जन्म के अनन्तर आचार्य और विद्या द्वारा व्रताचरण और विद्याध्ययन करके द्विजन्मा होकर ( विश्वा ) समस्त ( श्रवस्या ) श्रवण करने योग्य, यशोजनक ( वार्याणि ) श्रेष्ठ श्रेष्ठ ऐश्वर्यों और ज्ञानों को ( दधे ) धारण करता है । ( सुतुकः ) उत्तम पुत्रवान् पिता जिस प्रकार ( अस्मै ददाश ) अपने प्रत्यक्ष पुत्र को सर्वस्व दे देता है उसी प्रकार जो ( सुतुकः ) उत्तम पुत्र के समान उत्तम शिष्य से युक्त होकर ( मर्त्तः ) स्वयं मरणधर्मा होने से अपने विद्या धन को भी ( अस्मै ददाश ) इस विद्यार्थी को सौंप दे, इसी प्रकार अग्रणी पुरुष जो पुत्रसम प्रजावान् होकर ( अस्मै ) राष्ट्र के जनों के हितार्थ ही सब कुछ दे देता है वही ( मर्त्तः ) श्रेष्ठ, कर्मवीर पुरुष है । इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ भुरिगनुष्टुप् । २, ४ निचृदनुष्टुप् । ५ विरानुष्टुप् । ३ उष्णिक् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याला विद्यायुक्त व सुशिक्षित माता-पिता यांच्याकडून जन्म मिळतो तो एक जन्म. आचार्य व विद्येद्वारे द्विज बनतो व विद्वान होतो, तो दुसरा जन्म होय. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Such is this Agni, creative lord of cosmic yajna, wielder of the worlds, born of two and twice born, who holds the choicest foods, energies and honours of the universe. And the man who, self-sacrificing, twice bom of natural mother and mother Sarasvati, blest with the richest gifts of food, energy and honour, with a noble family gives in homage and surrender to this Agni, he is the real man.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The previous theme is further developed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The men who are endowed with much wisdom and advanced learning, give knowledge to this Secker after truth. The twice-born upholds all acceptable and glorious virtues. and later he becomes a man full of merits.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That man becomes enlightened who gets first birth from highly educated and cultured parents and second from the Acharya (preceptor) and his wisdom. Therefore he is called as Dwijanma or twice-born.
Foot Notes
(द्विजन्मा) गर्भविद्याशिक्षाभ्यां जात: = Born twice ie physically and spiritually. (सुषुकः ) सुष्ठु विद्यावृद्धः – Well advanced in learning highly educated.
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