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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 153 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 153/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पी॒पाय॑ धे॒नुरदि॑तिर्ऋ॒ताय॒ जना॑य मित्रावरुणा हवि॒र्दे। हि॒नोति॒ यद्वां॑ वि॒दथे॑ सप॒र्यन्त्स रा॒तह॑व्यो॒ मानु॑षो॒ न होता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पी॒पाय॑ । धे॒नुः । अदि॑तिः । ऋ॒ताय॑ । जना॑य । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । ह॒विः॒ऽदे । हि॒नोति॑ । यत् । वा॒म् । वि॒दथे॑ । स॒प॒र्यन् । सः । रा॒तऽह॑व्यः । मानु॑षः । न । होता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पीपाय धेनुरदितिर्ऋताय जनाय मित्रावरुणा हविर्दे। हिनोति यद्वां विदथे सपर्यन्त्स रातहव्यो मानुषो न होता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पीपाय। धेनुः। अदितिः। ऋताय। जनाय। मित्रावरुणा। हविःऽदे। हिनोति। यत्। वाम्। विदथे। सपर्यन्। सः। रातऽहव्यः। मानुषः। न। होता ॥ १.१५३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 153; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा यद्योऽदितिर्धेनुरिव हविर्दे ऋताय जनाय सुम्नं पीपाय विदथे वां सपर्यन् रातहव्यो होता मानुषो न हिनोति स जन उत्तमो भवति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (पीपाय) वर्द्धयति (धेनुः) दुग्धप्रदा गौरिव (अदितिः) अखण्डिता (ऋताय) सत्यं प्राप्ताय (जनाय) प्रसिद्धविदुषे (मित्रावरुणा) सत्योपदेशकौ (हविर्दे) यो हवींषि ददाति तस्मै (हिनोति) वर्द्धयति (यत्) यः (वाम्) युवाम् (विदथे) विज्ञाने (सपर्यन्) सेवमानः (सः) (रातहव्यः) रातानि दत्तानि हव्यानि येन सः (मानुषः) मनुष्यः (न) इव (होता) ग्रहीता ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये विद्यादानग्रहणकुशला अध्यापकोपदेशकाः सर्वान् वर्द्धयन्ति ते शुभगुणैः सर्वतो वर्द्धन्ते ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणा) सत्य उपदेश करनेवाले मित्रावरुणो ! (यत्) जो (अदितिः) अखण्डित, विनाश को नहीं प्राप्त हुई (धेनुः) दूध देनेवाली गौ के समान (हविर्दे) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को देता उस (ऋताय) सत्य व्यवहार को प्राप्त हुए (जनाय) प्रसिद्ध विद्वान् के लिये (सुम्नम्) सुख को (पीपाय) बढ़ाता और (विदथे) विज्ञान के निमित्त (वाम्) तुम दोनों की (सपर्यन्) सेवा करता हुआ (रातहव्यः) जिसने ग्रहण करने योग्य पदार्थ दिये वह (होता) लेनेवाले (मानुषः) मनुष्य के (न) समान (हिनोति) वृद्धि को प्राप्त कराता है और (सः) वह जन उत्तम होता है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्या देने-लेने में कुशल, पढ़ाने और उपदेश करनेवाले सबको उन्नति देते हैं, वे शुभ गुणों से सबके अधिक उन्नति को पाते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    'रातहव्य, मानुष, होता'

    पदार्थ

    १. हे (मित्रावरुणा) = प्राणापानो! आपकी साधना करनेवाले (ऋताय) = ऋतमय जीवनवाले व्यक्ति के लिए जनाय अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले व्यक्ति के लिए और (हविर्दे) = हवि के देनेवाले व्यक्ति के लिए (अदितिः) = अविनाशी (धेनुः) = ज्ञानदुग्ध देनेवाली वेदवाणीरूप गौ पीपाय आप्यायन करनेवाली होती है। प्राणसाधना करनेवाला व्यक्ति 'ऋत, जन व हविर्द' बनता है और वेदवाणी इसकी शक्तियों को बढ़ाती है। २. (यत्) = जब यह साधक (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (सपर्यन्) = आपका पूजन करता हुआ (वाम्) = आपको हिनोति अपने में प्रेरित करता है तब सः = वह रातहव्यः = हव्यों को देनेवाला, अर्थात् अग्निहोत्र आदि यज्ञों को करनेवाला, (मानुषः न) = विचारशील पुरुषों के समान होता है और (होता) = सदा दानपूर्वक अदन करनेवाला बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से मनुष्य ऋतमय जीवनवाला, शक्तियों का विकास करनेवाला, हवि देनेवाला व विचारशील बनता है। इसके लिए वेदवाणी ज्ञानदुग्ध देकर इसकी शक्तियों का विकास करती है ।

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    विषय

    अदिति, विदुषी स्त्री और आचार्य का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (धेनुः) जिस प्रकार दुधार गाय ( हविर्दे जनाय ) अन्नादि खाद्य पदार्थ देने वाले को (पीपाय) अपने दूध आदि से पुष्ट करती है उसी प्रकार (अदितिः) अखण्डित चरित्र वाली, सच्चरित्र स्त्री भी (हविर्दे) देने योग्य अन्न, वस्त्र, आभूषणादि पदार्थों के देने वाले (ऋताय जनाय) सत्य व्यवहार वाले पुरुप को ही (पीपाय) सुख समृद्धि से बढ़ाती है । और ( यत् ) जो ( वाम् ) तुम दोनों का (विदथे) ज्ञान और धन के लाभ होने पर ( सपर्यन् ) आदर करता हुआ ( वां हिनोति ) आप दोनों की वृद्धि करता है (सः) वही ( होता न ) यज्ञ में हवि देने वाले मुख्य होता के समान सब सुख ऐश्वर्यों का देने वाला होता है । ( २ ) इसी प्रकार (अदितिः) आचार्य अपने प्रियपदार्थ के दाता शिष्यजन को ज्ञान से बढ़ाता है । ज्ञानयज्ञ में मित्र, वरुण रूप से विद्यमान शिष्य गुरु में से जो दूसरे का आदरपूर्वक ज्ञान बढ़ाता है वही सर्वपूज्य सर्वदाता ‘आचार्य’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २ निचृत् त्रिष्टुप । ३ त्रिष्टुप । ४ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ चतुऋचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे विद्या देण्याघेण्यात कुशल, शिकविणारे व उपदेश करणारे असून सर्वांची उन्नती करतात त्यांची शुभगुणांनी सर्वात अधिक उन्नती होते. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, whoever the yajaka giving oblations in the yajna of love and charity to you like a noble human being, who invokes you and prays for help in his tasks of life, thanking you and serving you in gratitude, Mother Nature like a generous cow gives infinite blessings to that man of truth and sacrifice.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Mitra Varuno are great indeed Reasons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O preachers of truth ! one, who creates greater happiness in truthful learned performers of the Yajnas, and is undoubtedly a liberal and essentially good man. Equally again, a man is good and virtuous, person when he joins you in the act of the propagation of knowledge. Like a media man he who always accepts the truth and disseminates it admirably.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those teachers and preachers who are experts in receiving and disseminating true knowledge, enable all to develop harmoniously and thrive in all fields with noble virtues.

    Foot Notes

    (पीपाय) वर्द्धयति (हिनोति ) वर्द्धयति = Augments or increases.

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