ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 170/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वमी॑शिषे वसुपते॒ वसू॑नां॒ त्वं मि॒त्राणां॑ मित्रपते॒ धेष्ठ॑:। इन्द्र॒ त्वं म॒रुद्भि॒: सं व॑द॒स्वाध॒ प्राशा॑न ऋतु॒था ह॒वींषि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ई॒शि॒षे॒ । व॒सु॒ऽप॒ते॒ । वसू॑नाम् । त्वम् । मि॒त्राणा॑म् । मि॒त्र॒ऽप॒ते॒ । धेष्ठः॑ । इन्द्र॑ । त्वम् । म॒रुत्ऽभिः॑ । सम् । व॒द॒स्व॒ । अध॑ । प्र । अ॒शा॒न॒ । ऋ॒तु॒ऽथा । ह॒वींषि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठ:। इन्द्र त्वं मरुद्भि: सं वदस्वाध प्राशान ऋतुथा हवींषि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। ईशिषे। वसुऽपते। वसूनाम्। त्वम्। मित्राणाम्। मित्रऽपते। धेष्ठः। इन्द्र। त्वम्। मरुत्ऽभिः। सम्। वदस्व। अध। प्र। अशान। ऋतुऽथा। हवींषि ॥ १.१७०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 170; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वसूनां वसुपते त्वमीशिषे। हे मित्राणां मित्रपते त्वं धेष्ठो भवसि। हे इन्द्रं त्वं मरुद्भिः सह संवदस्वाध त्वमृतुथा हवींषि प्राशान ॥ ५ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (ईशिषे) ऐश्वर्यं करोषि (वसुपते) वसूनां धनानां पालक (वसूनाम्) कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्याणां पृथिव्यादिवत् क्षमादिधर्मयुक्तानाम् (त्वम्) (मित्राणाम्) सुहृदाम् (मित्रपते) मित्राणां पालक (धेष्ठः) अतिशयेन धाता (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (त्वम्) (मरुद्भिः) वायुवद्वर्त्तमानैर्विद्वद्भिः सह (सम्) (वदस्व) (अध) अनन्तरम् (प्र) (अशान) भुङ्क्ष्व (ऋतुथा) ऋत्वनुकूलानि (हवींषि) अत्तुं योग्यान्यन्नानि ॥ ५ ॥
भावार्थः
ये धनवन्तः सर्वेषां सुहृदो बहुभिः सह संस्कृतान्यन्नानि भुञ्जते विद्यावृद्धविद्वद्भिः सह संवदन्ते ते समर्था ऐश्वर्यवन्तो जायन्ते ॥ ५ ॥।अस्मिन् सूक्ते विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति सप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(वसूनाम्) किया है चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य जिन्होंने और जो पृथिव्यादिकों के समान सहनशील हैं उन (वसुपते) हे धनों के स्वामी ! (त्वम्) तुम (ईशिषे) ऐश्वर्यवान् हो वा ऐश्वर्य्य बढ़ाते हो। हे (मित्राणाम्) मित्रों में (मित्रपते) मित्रों के पालनेवाले श्रेष्ठ मित्र ! (त्वम्) तुम (धेष्ठः) अतीव धारण करनेवाले होते हो। हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्य के देनेवाले ! (त्वम्) तुम (मरुद्भिः) पवनों के समान वर्त्तमान विद्वानों के साथ (संवदस्व) संवाद करो। (अध) इसके अनन्तर (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु के अनुकूल (हवींषि) खाने योग्य अन्नों को (प्र, अशान) अच्छे प्रकार खाओ ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो धनवान् सबके मित्र बहुतों के साथ संस्कार किये हुए अन्नों को खाते और विद्या से परिपूर्ण विद्वानों के साथ संवाद करते हैं, वे समर्थ और ऐश्वर्य्यवान् होते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ सत्तरवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वसुपति व मित्रपति का पूजन त्
पदार्थ
१. 'अगस्त्य' इन्द्र का आराधन करते हुए कहता है कि हे (वसुपते) = सब धनों के स्वामिन् ! (त्वम्) = आप ही (वसूनाम् ईशिषे) = सब धनों के ईश हो । हे (मित्रपते) = सब मित्रों के रक्षक प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (मित्राणाम्) = अपने को पापों व मृत्यु से बचानेवालों के [प्रमीतेः त्रायते], (धेष्ठः) = अधिक-से-अधिक उत्तमता से धारण करनेवाले हो । वस्तुतः आप ही सब वसुओं को प्राप्त कराके हमें पापों व मृत्यु से बचने के योग्य बनाते हो। २. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (मरुद्भिः) = हम मितरावी व क्रियाशील पुरुषों के साथ (संवदस्व) = अनुकूल होओ। हमें सदा आपकी प्रेरणा प्राप्त हो और (अध) = अब आप (ऋतुथा:) = समय-समय के अनुसार (हवींषि) = हमारी हवियों को (प्राशान) = ग्रहण करनेवाले हों। हम आपकी प्रेरणा को प्राप्त करके सदा हविवाले बनें [हु दानादनयोः] त्यागपूर्वक अदन ही हमारे जीवन का सूत्र हो। इसी से तो हम आपके अधिक-से-अधिक समीप प्राप्त होनेवाले होंगे ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सब वसुओं के द्वारा हमारा धारण करते हैं। प्रभु - प्रेरणा को सुनते हुए हम हविर्मय जीवनवाले हों ।
विषय
सबके पालक प्रभु, वसुपति आचार्य का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे विद्वन् ! हे ( वसुपते ) सब ऐश्वर्यों और बसने बसाने वाले जीवों और लोकों के पालक ! तू ही ( वसूनां ईशिषे ) सब प्राणियों, ऐश्वर्यों और लोकों का स्वामी है। उनको अपने वश कर रहा है । हे (मित्रपते) मित्रों के पालक ! तू ( मित्राणां ) सब स्नेह करने वालों का ( धेष्ठः ) पालन पोषण और धारण करने वाला है । ( त्वं ) तू ( मरुद्भिः ) प्राणों के समान प्रिय विद्वान् मनुष्यों के साथ ( सं वदस्व ) उत्तम संवाद कर । (अध) और ( ऋतुथा ) ऋतु अनुसार (हवींषि) उत्तम अन्नों का ( प्र अशान ) अच्छी प्रकार भोग कर । (२) अधीन रहने वाले शिष्य अन्तेवासी ‘वसु’ ब्रह्मचारी हैं। उनका आचार्य ‘वसुपति’ है । वे ही ‘मरुत’ हैं उनसे संवाद कर उनको विद्योपदेश देवे । ऋतु अनुसार अन्नों और हविष्यों का भोग करे । परमेश्वर सब लोकों और जीवों का स्वामी है । वह विद्वानों द्वारा प्रजाओं को उपदेश करता है ऋत्वनुसार नाना अन्नों का अन्यों को भोग कराता है । अध्यात्म में—इन्द्र जीव । मरुत्, वसु, प्राण । वह प्राणों से वाणी का उच्चारण करता है, अन्नों को भोगता है । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ स्वराडनुष्टुप् । २ अनुष्टुप । ३ विराडनुष्टुप । ४ निचृदनुष्टुप् । ५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे धनवान, सर्वांचे मित्र, संस्कार केलेले अन्न खातात व विद्येने परिपूर्ण असलेल्या विद्वानांबरोबर संवाद साधतात ते समर्थ व ऐश्वर्यवान असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, spirit of the universe, master of the worlds, lord protector of the sustainers of life, highest wielder of the wealth of the world, you rule, govern and ordain the honour and grandeur of existence. Lord protector of friends and friends of life, you rule, govern and ordain all the powers and energies that protect, preserve and promote the evolution and onward march of life and humanity. Lord of knowledge and power, speak to the Maruts, dynamic powers of nature and humanity, accept our offers of oblations, consume them in the yajna fire, and create the life-giving vapours of energy and showers of rain according to the seasons.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The company of the learned makes wealthy more prosperous.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O INDRA ! you are the Lord of riches and of the Brahmacharis. They observe Brahmacharya (celibacy) up to to the age of 24 years and are endowed with forgiveness and other virtues. Like the earth etc., you are the protector of friends and their best upholder. You speak lovingly with the learned men who are mighty like the winds and then partake of food according to the varying seasons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those rich people who are friendly to all and share good and well cooked food along with others and who discuss and exchange notes with high learned and experienced persons, become capable and prosperous.
Foot Notes
( वसूनाम् ) कृतचतुर्विंशतिवर्षंब्रह्मचर्याणां । पृथिव्यादिवत् क्षमादिधर्मयुक्तानाम् = Of the persons who observe Brahmacharya up to the age of 24 years and are endowed with forgiveness, endurance and other virtues like the earth etc. (मरुदिः) वायुवद् वर्तमानैविद्वभि्दः = With the learned persons who are mighty like the winds. (हवींषि) अत्तुं योग्यान्यन्नानि = Good food.
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